Wednesday, December 1, 2010

ख़्वाब


 ख़्वाब देखा है मैने...ख़्वाब ही था शायद
वो तुम ही तो थीं..मटमैली चादर ओढ़े हुए
याद है मुझे मेरा ख़्वाब जब तुम
मेंहदी लगे हाथों से चुल्लू भर कर
पी रहीं थीं चश्मे का पानी....
और मुझे देखकर आया जब
तुम्हारे होठों पर हल्का सा तबस्सुम
लगा जैसे आसमां आ गया हो जमीं पर
मुझे मालूम है कि तुम हो कहीं पर
कैसे और किनसे कहूं अपना ख़्वाब
मुझे मालूम है हंसेंगें लोग मेरी तन्हाई पर
और कहेंगें तुम कहीं पागल तो नहीं
जानता हूं में ये अच्छी तरह
कुछ ख़्वाब होते हैं झूठे तो कुछ सच्चे भी
काश ऐसा हो के मेरा ख़्वाब भी सच्चा निकले...
                          आलम इंतिख़ाब

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