Monday, December 6, 2010

आपबीती......

लेखन का शौक बचपन से ही था। आए दिन कुछ न कुछ लिखने की आदत ने अख़बार से दोस्ती करा दी...आखिर अख़बार ही वो जरिया था जिसमें लेखन के जरिए लोगों तक अपनी बात पंहुचाई जा सकती थी। 1997 में अमर उजाला में और अंत में छोटा लेकिन प्रभावशाली लेख छपा...लोगों ने पढ़ा तो हौसलाअफ़ज़ाई की...और लिखने की प्रेरणा मिली..समय बीतता गया मैं लिखता गया...आखिर कुछ अच्छे लोगों की सलाह पर जर्नलिज्म को अपनाने की सोची। लगता था कि कितना अच्छा पेशा है आम लोगों की आवाज़ बनने का इससे अच्छा कोई दूसरा पेशा नहीं....यही सोचकर जामिया मिल्लिया इस्लामिया नई दिल्ली से जर्नलिज्म का डिप्लोमा किया।
         जब तक पढ़ाई चलती रही तब तक तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन जैसे ही कोर्स पूरा किया और इंटर्नशिप करनी चाही तो पता चला कि अगर आपके चैनल और अख़बार में लिंक नहीं हैं तो आप इंटर्नशिप तो क्या अंदर घुस भी नहीं सकते। कई महीने चैनल और अख़बार के दफ़्तरों के चक्कर काटने के बाद इंटर्नशिप मिली। मन में तय था कि काम पूरी ईमानदारी और मेहनत से करना है। कोई भी काम मिले करना है तो करना है...आज उसी का फल है कि में एक न्यूज चैनल में काफी कम समय में ही असि.प्राडयूसर बन गया हूं। रोजाना मेरे मन में कई नये आइडियाज आते हैं और मेरी कोशिश है कि एक बेहतर काम को अंजाम दिया जाए।
         चूंकि जर्नलिज्म में लेखन बहुत महत्वपूर्ण है इसलिए लेखन का प्रभावशाली होना बेहद आवश्यक है। चाहे टी.वी.हो या अख़बार बिना प्रभावशाली लेखन के आप ज्यादा दूर नहीं जा सकते। मेरी आज भी कोशिश होती है कि कुछ न कुछ लिखता रहूं..बड़े और अच्छे लोगों से दोस्ती के कारण ही में अपना काम बेहतर ढंग से कर रहा हूं। मैने अपने सामने कई ऐसे लोगों को देखा है जिन्होने इस फील्ड को अलविदा कह दिया। और फील्ड से इतर ये पूरी मेहनत मांगता है...  
           

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