Friday, December 24, 2010

सूचना अधिकार को लेकर भ्रम न पाले


सूचना अधिकार कानून के अमल में आने से एक ओर जहां लोगों को पहली बार लगा कि वास्तव में यह तो क्रांतिकारी कदम है। इस कानून की वजह से चंद सालों में ही लोग जान गए कि सुचना के अधिकार के तहत सरकारी कार्यालयों से कोई भी जानकारी बड़ी ही आसानी से मांगी जा सकती है। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा उन लोगों को हुआ जिनकी आवाज अभी तक अनसुनी कर दी जाती थी। वो समझ ही नहीं पाते थे कि आख़िर देश का सरकारी महकमा कर क्या रहा है। इस कानून में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि देश के आम और ख़ास लोगों को वो सब जानकारी जो वो चाहते हैं दी जाऐं, साथ ही अगर महकमा इसमें असफ़ल रहता है या सूचना देने में हीलाहवाली करता है तो संबधित अधिकारी पर जुर्माना भी लगाया जाए।
        दरअसल सरकारी महकमा आम लोगों को जिस तरीके से काम निकलवाने के लिए दफ़्तरों के चक्कर कटवाता है उससे लोग बेहद खफ़ा होते हैं। सरकारी चपरासी से लेकर बड़े अफ़सर सभी जनता का आवाज़ को अनसुना कर देते हैं। लेकिन इस कानून की वजह से उनके कानों का मैल कुछ हद तक साफ हुआ है। सरकारी कर्मचारी जान गऐ कि अब बात पहले जैसी आसान नहीं है। लोगों में जागरुकता आ रही है, कोई भी सादे काग़ज पर दस रुपए के भुगतान पर संबंधित आफ़िस से जानकारी मांग सकता है।
       
       हालिया घोटाले सामने आने पर सरकार भी इस कानून से डर गई लगती है। लेकिन एक आरटीआई एक्टविस्ट होने के नाते में कहना चाहता हूं कि लोगों को कोई भी भ्रम नहीं पालना चाहिए अगर सरकार शुल्क में बढ़ोत्तरी करने के मूड में है तो कर दे लेकिन इससे कम से कम हमें अपना अधिकार तो मिलेगा ही। भले ही सरकार की मंशा सूचना अधिकार को सीमित करने की हो लेकिन फिर भी वो इसे समाप्त नहीं कर सकती। 250 शब्दों में अपनी अपील करने की जो बात सामने आ रही है तो उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि कम शब्दों में भी प्रभावशाली बात की जा सकती है। 
                                           

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