Wednesday, January 19, 2011

ये साले बीपीओ वाले....


बेरोजगारी से बेहद परेशान हो चला था वो....इतना तंग आ चुका था कि बात मत पूछो...कभी-कभी तो उसे लगता कि वो पैदा ही क्यों हुआ। ये साली कुत्ते जैसी जिंदगी जीने से तो मर जाना ही भला...एक-एक रुपए के लिए तरस रहा था वो....खाने तक के वान्दे पड़ गए थे...कभी दोस्तों के घर खाने के वक्त चला जाता तो कभी लंगर में जाकर लंगर छक आता ऐसे ही दिन काट रहा था....ऐसी बात नहीं थी कि वो गये-गुजरे घर से था....था तो अच्छे घर से लेकिन सौतेली मां के चक्कर से घर से पैसे नहीं मंगवाता था....जब तक कालेज में रहा तो बाप पैसे भिजवा देता था लेकिन कालेज से पासआउट होते ही बाप ने ठेंगा दिखा दिया....कहा कि और भी बच्चे हैं मेरे....जिंदगी से बेहद निराश हो चला था वो....रोजगार मिल ही नहीं रहा था...काफ़ी कोशिश की पर हालात बदल नहीं रहे थे।
      नौकरी की तलाश में काफ़ी धक्के खाने के बाद उसे जब नौकरी नहीं मिली तो उस का मन अजीब से ख़्यालात में डूबने लग जाता....कभी-कभी उसे लगता कि आखिर वो किसके लिए जी रहा है....अपने लिए तो शायद ही नहीं....अब तो शायद दो ही काम हो सकते हैं...एक या तो मर जाउं....या फ़िर कुबेर का ख़ज़ाना लूट कर जिंदगी आराम से बिताउं...लेकिन ऐसा होगा कैसे....इसके लिए तो जिगरा चाहिए....शायद मरना जितना आसान है...जिंदगी जीना उतना ही मुश्किल...इसी उधेड़बुन में दिन काट रहा था....दिन बीत रहे थे और वो दिन भर नये-नये तरीके इज़ाद करने में लगा रहता....
     एक दिन उसे किसी ने बताया कि सबसे आसान जोब बीपीओ में होती है....दिनभर मस्ती करते रहो और हल्का-फुल्का काम....काम क्या वो भी फोन पर बातचीत...कुछ ख़ास नहीं बस लोगों के सवालों का जवाब देते रहो....पैसा भी अच्छा लाइफ़ भी अच्छी....दिमाग घूम गया उसका... साली ऐसी नौकरी तो मेरे लिए ही बनी है...पूरी डिटेल लेकर वो निकल पड़ा अपनी मंज़िल की ओर.....
     जोब के लिए आए हैं आप....जी मैडम....क्या जानते हैं आप बीपीओ के बारे में...जी कुछ ख़ास नहीं....क्यों करना चाहते हैं ये जोब....जी...मेरे टाइप की है...ओके...एक साथ कई सवाल पूछ गई.....एचआर.....लेकिन वो भी बिना हिचकिचाए जवाब देता रहा...यही उसके फ़ायदे में रहा....अब इसे उसकी ज़रुरत कहें या फ़िर उसका जिंदगी को दोबारा जीने की ललक.....ठीक है कब से आ सकते हैं आप....जी कल से ही...ओके....आपको इतना मिलेगा ठीक है....उम्मीद से ज्यादा पाकर उसको अपने आप पर यक़ीन की नहीं हो रहा था.....उसे लग रहा था कि शायद जिंदगी दुबारा नसीब हुई है...अब इसे ज़ाया नहीं किया जाएगा....
      अगले दिन नही धोकर आफ़िस पंहुच गया वो.....अंदर घुसते ही देखा...एसी...बेहतरीन आरामदायक कुर्सी....मिनरल वाटर....चाय काफ़ी...लंच और ख़ुबसूरत लड़कियां और क्या चाहिए जिंदगी जीने के लिए.....ये रहा आपका सिस्टम मैने जैसा बताया वैसा ही करना है...कोई परेशानी हो तो राखी से पूछ लेना ओके.....जी....शुक्रिया....ये साले बीपीओ वाले ओके बहुत कहते हैं....मन में ही बुदबुदाया वो....आपने कुछ कहा...जी नहीं बस.....ओके....साला फ़िर ओके....ख़ैर
      कुर्सी पर बाबूजी बन कर बैठ गया वो.....तभी एक काल आई.....हेलो जी में ....बोल रहा हूं....आपने तो कल कहा था कि कल तक आपका काम हो जाएगा....लेकिन अभी तक तो.....एक सांस में न जाने कितनी बातें कह गया कस्टमर....साथ में इनाम के तौर पर कुछ गालियां भी....अबे तेरी तो...नौकरी का ख़्याल आते ही चुप हो गया वो....वो समझ गया कि आख़िर काम कैसे बनता है.....उसे समझने में देर नहीं लगी कि अगर आगे बढ़ना है तो कस्टमर से प्यार से बात करनी ही होगी.....अब जो भी कालर काल करता उससे ही बात करने की बात करता.....मेनेजमैंट को मानना पड़ा कि वो उसके सबसे अच्छे इंप्लायरों में से नंबर वन है....एक साल में ही उसकी तरक्की कर दी गई....उसका पैसा भी बढ़ा दिया गया.....
      धीरे-धीरे दिन बीतते गए.... जिसने उसका इंटरव्यू लिया था उससे ही शादी कर ली उसने.... आज उसके पास गाड़ी...फ़्लेट और हर वो चीज़ है जिसके लिए वो कुछ दिन पहले तक तरसता था....उसे कभी-कभी अपने आप पर यक़ीन ही नहीं होता था कि वो खुद ऐसा हो जाएगा.....वो मानने लगा कि जिंदगी जीना भी उतना ही आसान है....लेकिन अगर जिंदगी को सही ढंग से जिया जाए तो.....

प्यार प्यार में....


किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है....
कहां हो तुम के ये दिल बेकरार आज भी है...
वो प्यार जिसके लिए हमने छोड़ दी दुनिया...
जी हां....प्यार एक खुबसूरत अहसास है....ऐसा अहसास जो कभी भी किसी को भी हो सकता है....कहीं भी हो सकता है....इस के लिए सिर्फ़ नज़र की जरुरत होती है...ऐसी नज़र जो पाक़ हो असली प्यार का मजा तब है जब उसे इमानदारी के साथ निभाया जाऐ...अक्सर लोग कहते हैं कि प्यार सिर्फ़ विपरित लिंगी से ही होता है....लेकिन प्यार वो चीज़ है जो कहीं भी किसी से भी हो सकता है....बेटे को अपनी मां से...बहन को अपने भाई से...बेटी को अपने बाप से....दोस्त को अपने दोस्त से...यहां तक कि जानवरों से भी प्यार होता है।
     लेकिन आज के हालात बदल चुके हैं आज प्यार को कभी-कभी मजाक समझकर एक-दुसरे की भावनाओं से भी खेला जा रहा है...अब या तो प्यार करने वालों में दम नहीं या फ़िर प्यार की अहमियत ही नहीं अब सिर्फ़ मतलब वाला प्यार हमारे उपर ज्यादा हावी हो गया है....हम किसी से प्यार करते हैं तो फायदे की कोशिश में भी जुट जाते हैं। कई बार होता ये है कि हम प्यार नहीं बल्कि नाटक कर रहे होते हैं। ऐसे प्यार का कोई फ़ायदा नहीं जिसमें परस्पर एक-दुसरे का सम्मान न हो....उसका ख़्याल न हो....कोशिश होनी चाहिए कि किसी से भी प्यार हो तो असली प्यार हो दिखावा नहीं...तभी सामने वाला आपके प्यार की अहमियत को समझेगा।
      हमें प्यार किया तो डरना क्या वाला फार्मूला तो अपनाना ही चाहिए सात ही ख्याल रखला चाहिए कि हमारे प्यार की वजह से किसी को भी तकलीफ़ न पंहुचे....जिससे कि कोई भी हम पर उंगली न उठा सके....हमारे प्यार कोरे काग़ज़ के जैसा साफ़ और सच्चा होना चाहिए.....

Tuesday, January 11, 2011

पलायन..........


दुर कहीं से जब आता है कोई
बच्चे टटोलते हैं उसका थैला
ढूंढते हैं वो उसमें अपने लिऐ
टाफ़ियां, मिठाई और चाकलेट

बच्चे होते हैं मासूम, उन्हे नहीं मालुम
कि क्यों जाते हैं उनके पापा
गांव से दूर बहुत दूर
कुछ कमाने को,कुछ खाने को

उन्हे अगर यहीं मिल जाता काम
तो फिर क्यों जाते वे दूर
सबसे दूर अपनों से दूर

Thursday, January 6, 2011

जिम्मेदार भुमिका निभाए मीडिया.....


6 जनवरी को पत्रकारिता दिवस को पुरे 185 साल हो गए,उदंत मार्तंड से शुरु भारतीय पत्रकारिता ने यूं तो कई पड़ाव पार किऐ हैं। लेकिन गैर-मुल्कों, जिसमें कि अमेरिका और विकसित देश शामिल हैं उनके सामने अभी भी भारतीय पत्रकारिता शिशु अवस्था में है। आज़ादी से पहले भारत में पत्रकारिता समाज में जागृति लाने के लिऐ जानी जाती थी। कई बड़े और नामचीन पत्रकार उस वक्त आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे।और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने कलम का हुनर दिखा रहे थे,कई अख़बार उस वक्त चंदे से जुटे पैसों से चल रहे थे। खुद महात्मा गांधी ने ؛हरिजन' नाम से अख़बार निकाला। हालांकि इसे खरीदने वालों की कमी नहीं थी, क्योंकि इसके साथ गांधीजी का नाम जुड़ा था। लेकिन इसके अलावा भी और कई अख़बार और पत्रिकाऐं जैसे-तैसे छप रहे थे। खास बात ये थी कि उस वक्त पत्रकारिता को मिशन के तौर पर लिया जाता था, लेकिन आज 21वीं सदी में हालात बदल गऐ हैं।
       आज हमारे देश में लाखों की संख्या में अख़बार छप रहे हैं लेकिन अब ये अख़बार व्यवसायिकता के रंग में रंग चुके हैं। भले ही ये पत्रकारिता को अपनाने का बढ़-चढ़ दावा करते हों लेकिन सच्चाई ख़बर पढ़ने वाले के सामने है। आज कोई भी सुधी पाठक दो से तीन मिनट में अख़बार पढ़ कर एक तरफ़ डाल देता है। इसका कारण साफ़ है,ज्यादातर अख़बार विज्ञापनों से अटे पड़े होते हैं। पूरे अख़बार में चोरी,डकैती,रैप और सनसनीखेज़ ख़बरों का अंबार होता है। पाठक को सामजिक मुद्दों से जुड़ी खबरें कम ही पढ़ने को मिलती हैं।
       नये ज़माने के साथ-साथ इलैक्ट्रोनिक मीडिया के बढ़ते चलन ने ख़बरों को भले ही नया रुप दे दिया हो लेकिन अभी भी वो जनता की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाये हैं। इसका कारण है कि वे ऐसी ख़बरों को तवज्जो ही नहीं देते जो सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई हैं। उनका कहना है कि हम वो ख़बर दिखाते हैं जो आवाम देखना और पढ़ना चाहती है। व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में वे एक पल के लिए भूल जाते हैं कि हर काम पैसा कमाने के लिए नहीं होता।
      पत्रकारिता को जो सबसे बड़ा झटका लगा है वो ये हे कि आज किसी भी मीडिया संस्थान में उच्च पदों पर ऐसे लोग क़ाबिज़ हैं,जिनको पत्रकारिता की एबीसीडी भी मालुम नहीं है। वो ज्यादातर या तो संस्थान के मालिक के वारिस हैं या फिर एमबीए किऐ मैनेजर.....उनसे भले ही पैसा कमाने की अपेक्षा की जा सकती है किंतु स्वस्थ पत्रकारिता की उम्मीद करना उनसे बेइमानी ही होगी।पत्रकारिता का लक्ष्य है जो कुछ भी ग़लत हो रहा है उसे जनता के सामने लाना,लेकिन आज पैसा लेकर ख़बरों को दबा देना आम बात है।
        अखबार और टीवी चैनल रहें न रहें लेकिन पत्रकारिता हमेशा रहेगी। आख़िर सूचना की ज़रूरत किसे नहीं है, देश की सरकार भी इसी पर निर्भर है। ख़बर चटपटा समोसा नहीं जो चट से खाया और पच गया, ख़बर असर करती है। ऐसा असर जो शायद दुर तक पंहुचता है।  यह बात मीडिया वालों को समझनी होगी,ख़बर और सूचना के माध्यम से ही हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी है। मीडिया के सामने चुनौती है कि वह उसे आम और ख़ास लोगों तक कैसे पंहुचाती है। ख़बर बनाते वक्त मीडिया वाले दुनियाभर की बातें कहते हैं, पर अंदर ख़बर आते ही उसे बदल देते हैं जो बिकेगा वहीं देंगे, ये धारणा बदलनी होगी। चूंकि बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, वक्त भी लगता है। उसके लिए रिसर्च की ज़रूरत भी होती है। लेकिन मीडिया वह करना नहीं चाहती या कर नहीं पाती।
       हमारे देश में आम रिवाज़ है कि हम दूसरे की कमियां तो निकाल लेते हैं लेकिन खुद की बात आऐ तो हमें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं होता...यही आज की मीडिया का भी हाल है...अपनी चादर फटी है लेकिन दूसरे की चादर फाड़ने को बेताब है....क्या इसके लिए कुछ किया नहीं जा सकता…? अगर मीडिया को अपना अस्तित्व बचाऐ रखना है तो उसे समाज़ में जिम्मेदार भुमिका अदा करनी ही होगी क्योंकि पत्रकारिता कभी मर नहीं सकती,ये हमेशा जिंदा रहेगी।
                   इंतिख़ाब आलम अंसारी,कोरोस्पोंडेंट,चैनल वन,नोएडा।        

Sunday, January 2, 2011

मंहगाई डायन....


बढ़ती मंहगाई के लिए आपकी मीडिया ही जिम्मेदार है भाई साहब...मंडी में तो प्याज़ मंहगी हो न हो आप जरुर मंहगी करवा देते हो..क्या जरुरत है आपको मंहगाई का राग अलापने की..क्या आप सरकार पर दबाव बनाते हो कि मंहगाई कम करो...नहीं न...तो फ़िर...क्यों टीवी पर दिनभर चिल्लाते रहते हैं कि प्याज़ मंहगी...टमाटर मंहगा....नाई की दुकान पर बढ़ती मंहगाई को लेकर चर्चा चल रही थी.. मेरे ये कहने पर कि आजकल तो हर चीज़ मंहगी होती जा रही है...नाई मुझ पर बरस पड़ा..
     बाल कटवाकर जब मैं वापस घर आया तो उसकी बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया..मैने महसूस किया कि कहीं न कहीं उसकी बातों में सच्चाई जरुर है....दुकानदारों को जैसे ही पता चलता है कि हम तो टमाटर 30 रु.बेच रहे हैं लेकिन मीडिया वाले उसे 60 रु. बता रहे हैं वो फौरन एक्टिव हो जाते हैं और फिर मंडी में तेजी का बहाना बनाकर 30 से सीधा 60 कर देते हैं... उपर से तर्क ये कि भई न्यूज़ देखा करो दाम बढ़ गये हैं...मैं समझता हूं कि मंहगाई की ख़बर दिखाने या छापने से पहले कोई भी रिपोर्टर मंडी में जाकर मोल भाव करता हो ऐसा नामुमकिन है...लेकिन फिर भी अपनी जिम्मेदारी से बचते हुऐ मीडिया सारा ठीकरा सरकार के सर फोड़ देता है।
      अगर मीडिया मंहगाई को लेकर वास्तव में संजीदा है तो उसे अपने आपको बदलना होगा उसे सनसनी फैलाने की बजाय हक़ीकत आम जनता को बतानी होगी...होता क्या है कि अक्सर टीआरपी के चक्कर में मीडिया उल-जलूल ख़बरों को प्राथमिकता दे देते हैं वे गहराई से ये नहीं सोचते कि इसका आम लोगों पर क्या असर पड़ेगा...उनका तो कुछ नहीं जाता लेकिन आम लोगों की जेब जरुर कट जाती है...इतना बड़ा देश है भारत वो भी कृषिप्रधान देश.....इस देश से तो लाखों टन सामान गैर मुल्कों में निर्यात किया जाता है...यहां कमी की बात करना अपने आपको धोखे में रखना है।
     हमारे देश में आम रिवाज़ है कि हम दूसरे की कमियां तो निकाल लेते हैं लेकिन खुद की बात आऐ तो हमें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं होता...यही आज की मीडिया का भी हाल है...अपनी चादर फटी है लेकिन दूसरे की चादर फाड़ने को बेताब है....क्या इसके लिए कुछ किया नहीं जा सकता? आज हमारे मुल्क में करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं होती...क्या मीडिया को उनकी भूख दिखाई नहीं देती...?
         मीडिया में इतनी ताकत है कि अगर वो चाहे तो मंहगाई को कुछ पल में ही काबू में करवा सकता है...वो अगर यह कह दे कि मंहगाई सरकार नहीं बल्कि जमाखोर और मुनाफ़ाखोर बढ़ा रहे हैं...उनके ठिकानों पर छापे मार कर इसे भी एक्सक्लूजिव बना कर टीआरपी बटोरी जा सकती है....आखिर आम लोग भी तो जानना चाहते हैं कि मंहगाई का जिन्न अचानक ही क्यों बाहर निकलता है....इसके जिम्मेदार आखिर हैं कौन...किस-किस की इसमें भागीदारी है...केवल सरकार को कोसने से कुछ नहीं होने वाला...क्योंकि सरकार मौसम की तरह आती जाती रहती हैं....पहले तो हक़ीकत की गहराई में उतरना होगा....कारण तलाशने होंगे...रिसर्च करनी होगी...तब जाकर कुछ निर्णय लिया जाऐ तो अच्छा है...मगर यूं हीं टीआरपी के चक्कर में रहे तो लोग ख़बरों से नफ़रत करने लगेंगे जिसका खामियाजा मीडिया को ही भुगतना पड़ सकता है।

पत्रकारों के वेतन में 35 प्रतिशत वृद्धि की सिफारिश


पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड ने अखबारों और समाचार एजेंसियों के कर्मियों के लिए 65 % तक वेतन वृद्धि की सिफारिश की है। साथ में बेसिक का 40 % तक हाउस रेंट अलाउंस और 20 % तक कन्वेअन्स अलाउंस देने का सुझाव दिया है।

जस्टिस जी. आर. मजीठिया के नेतृत्व वाले वेतन बोर्ड ने यह भी सिफारिश की कि नए वेतनमान जनवरी 2008 से लागू किए जाएं। बोर्ड ने पहले ही बेसिक का 30 % अंतरिम राहत राशि के रूप में देने का ऐलान कर दिया था।
मजीठिया ने केंद्री श्रम सचिव पी. के. चतुर्वेदी को रपट सौंपी। चतुर्वेदी ने बताया कि सरकार इस रपट की समीक्षा करने के बाद इसे जल्द से जल्द लागू कराने की कोशिश करेगी।

बोर्ड ने 35 प्रतिशत वैरियेबल पे देने की सिफारिश की है। न्यूज पेपर इंडस्ट्री के इतिहास में किसी वेतन बोर्ड ने इस तरह की सिफारिश पहली बार की है।
मजीठिया वेतन बोर्ड ने पत्रकारों और अन्य अखबारी कर्मचारियों की रिटायरमेंट आयु बढ़ाकर 65 साल करने, डीए के बेसिक में शत प्रतिशत न्यूट्रलाइजेशन और विवादों के निपटारे के लिए स्थायी ट्राइब्यूनल बनाने की सिफारिश की है।

मजीठिया ने संवाददाताओं से कहा कि इस बार की रपट में सबसे निचले ग्रेड के लिए भी अच्छे वेतन की सिफारिश की गई है। उन्होंने कहा कि नए फॉर्म्यूले के अनुसार पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मचारियों का बेसिक उसके वर्तमान बेसिक और डीए में 30 % अंतरिम राहत राशि और 35 प्रतिशत वैरियेबल पे को जोड़कर तय किया गया है। डीए बेसिक में शत प्रतिशत न्यूट्रलाइजेशन के साथ जुडेगा। ऐसा अब तक केवल सरकारी कर्मचारियों के मामले में होता आया है। (स्रोत - यूएनआई, नवभारत टाइम्स)


Saturday, January 1, 2011

कुछ लेते क्यों नहीं......


अरे चचा क्या हाल हैं....कुछ लेते क्यों नहीं....मजाक के मूड में मैने चचा को छेड़ डाला...अबे लेना क्या है...ससुराल वालों से पेले ही करजा लिये बैठा हूं कसम उड़ान झल्ले की...तो चुकाते क्यों नहीं...अबे तू कौन होता है मेरा पजामा खींचने वाला....में आपका शुभचिंतक हूं चचा...चिंतक अबे वो क्या...अरे मतलब...आपका चहेता...हैं...चचा खुश हो गऐ...चचा नया साल आ गया है इस साल कौन-कौन सी कसमें खाई हैं तुमने...भईया मे तो इस साल लोगों को सच ही बताया करुंगा....हैं....पर चचा तुम तो हर साल यही कसमें खाते रहते हो...इरादे बांधते हो सोचते हो तोड़ देते हो...कहीं ऐसा न हो जाऐ कहीं वेसा न हो जाऐ...अबे हिंदी में बोल...चचा चिल्ला उठे...और मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी का इस्तेमाल मुझ पे न किया कर...लेकिन चचा वो तो में...अच्छा ये बताओ..गुजिश्ता साल कैसा रहा...अरे रहना कैसा था बस तुम जिंदा हो...नऐ साल में हमें पकाने के लिऐ...क्या मतलब...मतलब हमारा नालेज बढ़ाने के लिए...हूं...इतना सुनकर चचा उचक कर टूटी खटिया पर बैठे और धम्म से धमाका छाप तंबाकू मुंह में डालते हुऐ बोले..लेकिन लल्ला ये साल घोटालों के लिऐ भी जाना जाऐगा...क्या जमकर घोटाले हुऐ इस साल...जाते-जाते शिवराज पूरी लोगों को चूना लगा गया...हां वो तो है चचा... पर इससे तुम्हे क्या तुम तो बैंक में खाता खुलवाते ही नहीं...अबे ऐसी बात नहीं है कई दफ़ा घर आऐ हैं बैंक वाले... कहने लगे चचा हमारे बैंक में भी डाल दो आठ दस करोड़....पर मैने साफ़ मना कर दिया.. कैया कि भईया हिंया के बैंको का कोई भरोसा नई कब सरकार बदल जाऐ....मे तो स्विस बैंक में ही पैसे डालता हूं कसम उड़ानझल्ले की.....हां चचा सही कै रहे हो जेब में नहीं आने और अम्मा चली भुनाने...बस करो चचा नये साल का पहला दिन है....आज तो कम फैंक लो....चचा खिसिया कर रह गऐ....में बाज़ार निकल पड़ा.....