Friday, March 4, 2011

देर आए दुरुस्त आऐ.......


जामिया मिल्लिया इस्लामिया को अल्पसंख्यक का दर्ज़ा मिलने पर जब में जामिया में लोगों और स्टूडेंट से उनकी राय लेने पंहुचा तो ये जानकर हैरान रह गया कि कई लोगों को इसकी कोई भी खुशी नहीं है। एक स्टुडेंट से जब मैने सवाल पूछा कि अब जामिया में उन बच्चों का सपना भी पूरा हो सकेगा जो कि गांव में रहते हैं और बुनियादी सहुलियात से महरुम होकर भी जामिया में पढ़ाई का सपना देखते हैं तो उसने तपाक से जवाब दिया कि इसमें जामिया की क्या गलती है। अगर आप टेलेंटेड हैं तो कहीं भी आपका एडमिशन हो सकता है। मैने दूसरा सवाल उसके जवाब से निकालकर उससे पूछा कि अगर आपका सपना जेएनयू है लेकिन अगर आपका एडमिशन वहां नहीं हो पाता तो आप क्या करेंगें भले ही आप लाख टेलेंटेड क्यों न हों तो उसने कहा कि में रिजर्वेशन का सहारा लेकर कोशिश करुंगा। मुझे मेरा जवाब मिल चुका था....लोग चाहते तो हैं कि रिजर्वेशन न हो लेकिन जब अपने पर बन आए तो उसका फ़ायदा उठाने से भी नहीं चूकते। अगर ऐसा न होता तो इतनी लंबी जद्दोजहद के बाद जामिया को ये फ़तह हासिल न होती। इसके लिए न सिर्फ़ लंबी लड़ाई लड़ी गई बल्कि उन सब चीज़ों का भी हवाला दिया गया जिसको लेकर इसको स्थापित करने वाले लोगों ने इसका ख़्वाब देखा था।
      दरअसल जब जामिया को अलीगढ़ में 1920 में स्थापित किया गया उस वक्त इसकी सोच उन लोगों के लिए थी जो तालिमी तौर पर पिछड़े हुए और गरीब तबके से जुड़े हुए थे। अगर ऐसा न होता तो महात्मा गांधी खुद इसको बेहतर इंस्टिटयूट बनाने की पहल न करते। जब गांधी जी को मालूम हुआ कि मौलाना मौहम्मद अली जौहर,डा.जाकिर हुसैन,मुख़्तार अहमद अंसारी,हक़ीम अज़मल खां,अब्दुल मज़ीद ख़्वाजा जैसे पढ़े लिखे लोग इसको बेहतर तालिम देने वाली यूनिवर्सिटी बनाने का सपना देख रहे हैं तो उन्होने इससे जुड़े लोगों की हौसला अफ़ज़ाई की। 1925 में यह इदारा अलीगढ़ से देहली के करोल बाग में शिफ़्ट हो गया। महज चार कमरों से शुरु हुआ ये इदारा आज हजारों तलबा को बेहतर तालिम दे रहा है। कई जाने-माने दानिश्वर इस इदारे से पढ़लिख कर मुल्क के अहम ओहदे तक पंहुचे।
    जामिया की स्थापना ये सोचकर की गई थी कि इस इदारे में वे मुसलमान बच्चे जो किन्ही वजहों से अपनी आगे की तालीम से महरुम रह जाते हैं,और गुरबत में ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं उन्हे भी बेहतर तालीम मुहैया हो सके। आजादी के 65 साल बाद भी मुसलमान तरक्कीयाफ़्ता क़ौम नहीं बन सकी,इसकी कुछ वजह हैं जिनमें सबसे पहली वजह है उनकी बेहतरीन नुमाइंदग़ी न होना। कितने ही मुसलमान लीडर हुए लेकिन किसी ने भी सही तरीके से मुसलमानों के मसायल को हल करने की ठोस पहल नहीं की,आज हालात ये हैं कि मुसलमान अपने आपको दोराहे पर खड़ा पाता है तो सोचता है कि उसका गुनाह आख़िर है क्या ?
      मुल्क की जानी-मानी यूनिवर्सिटी में तब्दील हो गया है जामिया मिल्लिया लेकिन अगर ग़ौर करें तो अच्छी फैकल्टियों में मुस्लिम तलबा कम ही नज़र आते हैं। इसका सीधा मतलब है कि उन्हे रिजर्वेशन की सख्त ज़रुरत है। ज्यादातर मुस्लिम तलबा की बुनियादी तालीम मदरसों तक ही सिमित है। शहरों को छोड़ दिया जाए तो गांव में आज भी मदरसों में अंग्रेजी और कम्प्यूटर तलबा के लिए ख़्वाब से कम नहीं है। तालीम को लेकर भी मुसलमानों ने संज़ीदगी नहीं दिखाई,इसका पहली वजह है उनका आर्थिक तौर पर कमजोर होना। तंगहाली की वजह से भी मुसलमान तालीम में पिछड़ गए। उन्होने अपने बच्चों को पढ़ाने की बजाए काम धंधों से जोड़ना मुनासिब समझा। दूसरी ख़ास वजह रही हुकूमत की लापरवाही,मुसलमानों की तरक्की को लेकर सिर्फ़ कमेटियां ही बनाई गईं उनकी सिफ़ारिशों पर कोई तवज्जों नहीं दी गई न ही उस पर कोई ग़ौर-ओ-फ़िकर की गई। अगर हुकूमत चाहती तो अलग से भी मुसलमानों की तालीम पर ज्यादा तवज्जो दे सकती थी लेकिन उसने सिर्फ़ मुसलमानो को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया। उसे लगा कि अगर मुसलमान आगे बढ़ गये तो उसके वोट बैंक को खतरा हो सकता है।
    मुसलमानों को आधुनिक तालीम से दुर रखने में हमारे मुल्ला मौलवियों का भी बड़ा हाथ रहा है। उन्होने सिर्फ़ इस्लामी तालीम को ही तवज्जो दी रोजगार से जुड़ी तालीम को नज़रअंदाज करना मुसलमानों को भारी पड़ गया,जिससे वो पिछड़ते चले गए। हालांकि इसमें मुसलमान भी कम कसूरवार नहीं हैं,वे सिर्फ़ हुकूमत को कोसते रहते हैं। उन्हे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं कि अपना मुस्तक़बिल रोशन करने के लिए उन्हे खुद ही आगे आना होगा। जब तक वो तालीमयाफ़्ता नहीं होंगे उनका मुस्तक़बिल कैसे रोशन होगा सोचने वाली बात है। बिना तालीम के वो कैसे अपने आपको समाज में क़ायम रख पाएंगे,ज़ाहिर सी बात है कि अगर कोई सिर्फ़ दूसरे को कोसता रहे तो वो कैसे क़ामयाब ज़िंदगी जी पाएगा।
    जामिया मिल्लिया हो या फ़िर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी या फ़िर आन्ध्रा प्रदेश का उस्मानिया यूनिवर्सिटी ये मुस्लिम तलबा की तालीम के लिए ही जाने जाते रहे हैं। बेशक हिंदुस्तान धर्मनिरपेक्ष मुल्क है,और यहां दूसरे मुल्क की बजाए मुसलमान बेहद महफ़ूज़ हैं। लेकिन कहीं न कहीं मुसलमानों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए ये पहल बेहद ज़रुरी आन पड़ती है। इशके लिए अगर जामिया को अल्पसंख्यक का दरजा दिया गया है तो इसमें क्या बुराई है। अब कम से कम वे बच्चे जो जामिया में पढ़ाई का सपना पाले बैठे हैं,इस 50 फीसद रिजर्वेशन की वजह से उका सपना पूरा हो सकता है।
    50 फीसद सीटों के रिजर्व हो जाने से अगर जामिया में पढ़ने वाले मुस्लिम तलबा की तादात में इज़ाफ़ा होता है,तो इसमें खुशी जाहिर होनी चाहिए क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो शायद मुस्लिम तालीम में कुछ हद तक सुधार की गुंजाइश हो। लेकिन रिजर्वेशन का फ़ायदा तभी है जब इसका सही तरीक़े से इस्तेमाल किया जाए। इसमें कोई भी बंदरबांट न हो,खुले तरीके से जिसका इस पर लहक़ है उसे उसका हक़ मिलना ही चाहिए चाहे वो ग़रीब ही क्यों न हो। जामिया में आने वाले हर उस बच्चे को जिसका सपना आगे जाकर कुछ बनने का है,पूरी सहुलियात मिलनी चाहिए इसके लिए जामिया को पूरी कोशिश करनी होगी कि अल्पसंख्यक का दर्ज़ा मिलने का बावजुद भी जामिया तालीम के मामले में पीछे न रहे। साथ ही इसकी साख पर भी कोई आंच न आए,ये कोशिश की जानी चाहिए एक नई शुरुआत के साथ।      
    

No comments: