Sunday, June 12, 2011

ख़बरों को तमाशा बनाने का खेल...


पिछले दिनों दो तीन ऐसी घटनाऐं एक के बाद एक घटी कि मेरा दिल कुछ तल्ख़ लिखने को मजबूर हो गया।एक और जहां बाबा रामदेव और उनके समर्थकों को बर्बरतापूर्वक दिल्ली के रामलीला मैदान से खदेड़ दिया गया तो दूसरी और कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्दन द्धिवेदी को एक पत्रकार ने जूता दिखा दिया तो वहीं मुंबई में सरेआम एक पत्रकार को गोलियों से भून दिया गया। इन तीन घटनाओं ने मुझे मेरे पेशे के प्रति संजीदगी से सोचने को मजबूर कर दिया,मुझे पहली बार लगा कि पत्रकार चाहे कितना भी प्रोफेशनल हो एक न एक बार तो अपने पेशे के प्रति वफ़ादार होता ही है।सबसे पहले बाबा रामदेव की ख़बर पर आते हैं,बाबा रामदेव ने देश का 4सौ करोड़ रुपए का काला धन का मामला उठाकर जैसे गुनाह कर डाला। सरकार बाबा रामदेव के पीछे हाथ धो कर पड़ गई,उनकी संपति से लेकर उनके इतिहास तक के बारे में पता लगाने की कोशिश करने लगी।इससे नाराज़ बाबा ने दिल्ली की बजाए हरिद्धार से ही अपना अनशन शुरु कर दिया,गर्मी के मौसम में बाबा की तबियत ख़राब हो गई और बाबा को जबरन देहरादून के हिमालयन अस्पताल में भर्ती कराया गया। साधु-संतों की काफ़ी मान-मुनोव्वल के बाद बाबा ने अपना अनशन तोड़ा।लेकिन जिस तरीके से मीडिया ने बाबा की ख़बरों को दिखाया और छापा उसने पत्रकारिता के पेशे पर सवालिया निशान लगा दिए,जिस बाबा को मीडिया ने इतना हाइप कर दिया था उसी बाबा को टीआरपी के फेर में मीडिया ने इतना नीचे गिरा दिया कि खुद बाबा को भी अहसास नहीं हुआ।ज़्यादातर टीवी चैनल बाबा को स्त्रीवेश में मैदान से बाहर निकल जाने को ऐसे दिखा रहे थे जैसे कि बाबा ने कोई संगीन जुर्म किया हो,इससे उन लोगों में जो बाबा को सम्मान की नज़र से देखते थे उन्हे धक्का लगा। उन्हे लगा कि ये बाबा भी दूसरे बाबाओं की तरह से ढोंगी है। जो पुलिस की कार्रवाई से बचने के लिए स्त्रीवेशभूषा में मैदान छोड़कर भाग निकला। रात के दो बजे अगर पुलिसवाले अपनी नौकरी की ख़ातिर बाबा के हाथ-पैर तोड़ देते तो क्या होता। क्या मीडिया की ज़िम्मेदारी नहीं बनती थी कि वो इस तरह की ख़बरों को दिखाने से परहेज करता मीडिया को किसी की भी छवि पर धब्बा लगाने की कोशिश करने का हक़ किसने दिया।क्यों मीडिया ने रामलीला मैदान पर अपने अपने द बेस्ट रिपोर्टरों को लगाया, जाने देते...अगर मीडिया इतना हाइप न करता तो बाबा को गरियाने वाले नेता उनके कदमों में बैठे होते। लेकिन मीडिया ने उनकी इज्जत को तार-तार करने में कोई कसर न छोड़ी,टीवी पर चीख-चीख कर बताया जा रहा था कि देखिए ऐसे भागे बाबा हम दिखा रहे हैं सबसे पहले आपको एक्सक्लूजिव लेकिन ये पब्लिक है सब जानती है, मीडिया का नंगा सच सबके सामने है। बाबा को आज भी उतनी इज्जत हासिल है जितनी कि पहले थी,आख़िर संविधान ने आवाज़ उठाने का हक़ सबको दिया है और मीडिया जतनी जल्दी समझ जाऐ उसकी सेहत के लिए अच्छा है।
      इसी बीच दूसरी ख़बर आई कि कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्द्धन द्धिवेदी की प्रेस कांफ्रेस में एक नामालुम पत्रकार ने उन्हे जूता दिखा दिया,जिस पर उसकी जमकर पिटाई कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया,अगले दिन टीवी चैनलों ने दिखाया कि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी उस पत्रकार को लात मारी,बस क्या था टीवी चैनलों को टीआरपी बढ़ाने का फार्मूला मिल गया,कोई ऐनिमेशन से लोगों को समझा रहा था तो कोई अपने सहयोगी के कंधे पर हाथ रख उचक-उचक कर बता रहा था कि ऐसे लात मारी दिग्विजय सिंह ने। आख़िर ये सब है क्या.. इसमें कोई सच्चाई नज़र नहीं आई इससे बेहतर तो ये था कि उस पत्रकार से पूछा जाता कि आख़िर उसने ये क़दम क्यों उठाया। लेकिन इससे उलट मीडिया ने ख़बर को चटपटा बनाने के लिए मसालों का भरपूर प्रयोग किया।
      बाबा रामदेव के अनशन के बीच एक दिल दहला देने वाली ख़बर आई कि मुंबई में मिड डे से जुड़े क्राइम पत्रकार और अंडरवर्ल्ड पर दो बेहतरीन किताबें लिखने वाले ज्योतिर्मय डे को कुछ लोगों ने गोलियों से भून डाला। हैरानी की बात ये है कि अपने साथी की मौत पर किसी को कोई रंज नहीं किसी भी टीवी चैनल ने इस पत्रकार की मौत पर आधे घंटे का प्रोग्राम नहीं बनाया,जबकि वो पत्रकार ख़बर जुटाने की बजाए खुद ख़बर बन गया। ऐसा क्यों है अगर राखी सावंत को कोई सिरफ़िरा छेड़ दे तो आधे घंटे का प्रोग्राम हर टीवी चैनल पर तय मानिए, मगर अगर कोई पत्रकार पिटता है या मारा जाता तो उसके लिए इनके दिलों तो छोड़िए इनके टीवी चैनलों के प्राइम टाइम में कोई जगह नहीं है। किसी भी टीवी चैनल नें ज्योतिर्मय के परिवार का इंटरव्यू नहीं लिया सरकार पर तो दबाव डालना दूर की बात है। इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि पत्रकारिता में खुदगर्जी कितनी हावी हो चुकी है,कहा जाए तो संवेदना मर चुकी है इन्हे चाहिए तो बस टीआरपी,और इसके चक्कर में ये खुद कब तमाशा बन जाऐं इन्हे इसकी परवाह नहीं।   
       

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