Wednesday, July 13, 2011

अपना वजूद पहचाने मुसलमान...



यूं तो मुल्क में मुसलमानों की तादात तक़रीबन 20 फीसद से भी ज़्यादा है।और आज़ाद मुल्क में ये तादात काफ़ी मायने रखती है,मग़र आज भी मुल्क का ज़्यादातर मुस्लिम तबक़ा पसमांदगी की ज़िदगी जीने को मजबूर है।रोज़ग़ार से लेकर तालीम में मुसलमानों की पसमांदगी साफ़ नज़र आती है।चुनाव के दौरान हर पार्टी मुसलमानों की रहनुमा बनने का नाटक करती है मग़र उसके बाद हालात बदल जाते हैं।आज तक कोई भी मुस्लिम पार्टी अपना वजूद क़ायम रखने में नाकाम रही है।जिसकी वजह से मुसलमान हाशिए की ज़िदगी जी रहा है।उनके नाम पर सियासत करने वाले उनकी किसी भी परेशानी का हल निकाल पाने में कामयाब नहीं हो पाते,जिसके मद्देनज़र मुसलमान हुकूमत तक अपनी आवाज़ बुलंद नहीं कर पाते।
     तारीख़ गवाह है कि आज़ादी से पहले मुसलमानों की हालत हिंदुस्तान में काफ़ी बेहतर थी मग़र आज़ादी के बाद हालात इतनी तेज़ी से बदले कि मुल्क का आम मुसलमान पिछड़ेपन की आंधी में बहता चला गया,और ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहा जो आज भी क़ायम है।अगर गौर किया जाऐ तो कई जगह मुसलमानों की हालत दलितों से भी बद्तर है मग़र उनकी तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं है,उनके पास न तो कोई कारोबार है और न ही उन्हे सरकारी सहुलियात मिल पा रही है। वो तो बस सरकार की नज़रों में वोट बैंक बने हुए हैं,जिनका इस्तेमाल चुनाव के वक्त किया जाता है। हालात ये हैं कि मुसलमान फुटबाल की मानिंद हो चुके हैं,जो चाहे उसे इस्तेमाल कर सकता है और बड़ी ही आसानी से गोल दागकर जीत हासिल कर सकता है।
    मैं समझता हूं कि मुसलमानों के पिछड़ेपन में अगर किसी का क़सूर है तो वो सबसे ज़्यादा ख़ुद मुसलमानों का है,उन्होने कभी भी ख़ुद को बदलना ही नहीं चाहा,वो अपने घिसे-पिटे फार्मुले पर ही ज़िंदगी जी रहे हैं,उन्होने कभी भी तरक्कीयाफ़्ता क़ौम में तब्दील होना ही नहीं चाहा। सिर्फ़ सरकार को कोसने से कुछ हासिल नहीं,जब वो अच्छी तरह से जानते हैं कि सभी पार्टियां उनको इस्तेमाल करती हैं तो क्यों नहीं वे उनकी चाल समझ पाते।इसकी सबसे बड़ी वजह मुसलमानों का आपस में इत्तहाद(एकता) न होना भी है,मुसलमान आज कई फ़िरकों में बंटे हुए हैं जबकि इस्लाम के मुताबिक़ कलमा पढ़ने वाला हर इंसान मुसलमान है,उसकी न तो कोई जाति है और न ही कोई फ़िरका मगर मुसलमान न तो शरियत के मुताबिक़ चल रहा है और न ही जदीदी(आधुनिकता) के मुताबिक़,तो ऐसे में मुसलमान आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ेगा नहीं तो क्या होगा।जितने भी मुस्लिम लीडर हैं वो कभी भी नहीं चाहेंगें कि मुसलमान तरक्कीयाफ़्ता क़ौम में तब्दील हो जाऐं अगर ऐसा हो गया तो उनकी दुकान चौपट हो जाऐगी,लेकिन सवाल ये पैदा होता है कि हाशिए कि ज़िदगी जी रहे मुसलमान किसे अपना रहनुमा चुने,क्योंकि मुस्लिम पार्टियों का हश्र ढाक के तीन पात वाला रहा है,वो खुद ही अपने आपको नहीं संभाल सके तो 22 करोड़ से ज़्यादा मुसलमानों को क्या संभालेंगे।
     आज़ादी के इतने सालों बाद भी सरकार का रवैया मुसलमानों के प्रति बेरुख़ी वाला ही रहा है।पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर कई राज्य ऐसे हैं जहां सरकार बनाने में मुसलमानों की निर्णायक भूमिका रही है।लेकिन उनका कोई पुरसाने हाल नहीं है,लॉलीपॉप के तौर पर किसी मुसलमान विधायक या एमपी को मंत्री बना देने से समस्या का हल होने वाला नहीं है।केंद्रीय सरकार हो या राज्य सरकार सबने हमेशा ही मुसलमानों से छल किया है,पर अफ़सोस कि मुसलमान लाचार और बेबस होकर तमाशा देखने को मजबूर है।
     ऐसा नहीं है कि मुसलमान अपने हालात से वाकिफ़ नहीं है,बस वो हिम्मत नहीं कर पाता है और रही सही कसर उसके अपने लीडरान निकाल देते हैं।वो कभी भी खुलकर मुसलमानों के हक़ के लिए आवाज़ बुलंद नहीं कर पाते,उनकी आवाज़ इतनी धीमी होती है कि वो सरकार के कानों तक पंहुच ही नहीं पाती।कोई शक नहीं कि अगर मुसलमान अपने हक़ के लिए सड़कों पर उतर गया तो सरकार को न सिर्फ़ मुसलमानों की मांगों को मानना होगा बल्कि सालों से अपने हक़ से महरुम मुसलमान को उनका वाजिब हक़ देना ही होगा,बस ज़रुरत इस बात की है कि मुसलमान आपस में इत्तेहाद(एकता) क़ायम कर अपने वजूद को पहचानें।

Monday, July 11, 2011

अमीर-ग़रीब...

अमीरों के मियां दुश्मन भी ज़रा कम ही होते हैं,
ग़रीबों के तो हर दुश्मन वक्त-बे-वक्त होते हैं।
अमीरों की तो हर मुश्किल आसां सी होती है,
ग़रीबों की हर मुश्किल परेशां सी होती है।
अमीरों का बड़ा दुश्मन खुद अमीरी है,
ग़रीबों का बड़ा दुश्मन ख़ुद ग़रीबी है।
अमीरों के ज़रा शौक कुछ बड़े से होते हैं,
ग़रीबों के तो शौक कुछ अलग से होते हैं।
वो जीते हैं अमीरी में,वो जीते हैं ग़रीबी में
परेशां वो भी होते हैं,परेशां ये भी होते हैं।
अमीरों की परेशानी का हल तो हो भी जाता है,
ग़रीबों की परेशानी का कोई हल नहीं मिलता।
अमीरों के सीने में ज़रा सा दिल धड़कता है,
ग़रीबों के सीने में बड़ा सा दिल धड़कता है।
वो जीते हैं अकेले में,वो जीते हैं अंधेरे में,
वो चीज़ों को चख़ते हैं,उन्हे चीज़ें मयस्सर नहीं।
वो सोते हैं महलों में,वो सोते हैं सड़कों पे,
वो नींद से हैं कोसों दूर,वो भरपूर सोते हैं।
उनके काम हैं आसां,उनके कुछ अलग से हैं,
वो मरने से डरते हैं,वो रोज़ाना ही मरते हैं।

Saturday, July 9, 2011

एहसास...


अजीब कशमकश में हूं साहब
बड़ी उलझन मैं जी रहा हूं मैं
चार टुकड़े हो गए हैं बेक़सूर जिस्म के
एक दिल,एक वो,एक हम, एक तुम
क्या हुआ एहसास को मर गया है शायद
फ़िर मुकद्दर ले के आया उसी मंज़र पर
खो गई हैं बिजलियां सी वो कहीं गुमशुदा
ढुढंना मुमकिन नहीं है कैसे ढूंढे हम उन्हे
एक शाम,एक रात,एक सुबह,एक शब
क्या हुआ एहसास को मर गया है शायद
अजीब कशमकश में हूं साहब
बड़ी उलझन मैं जी रहा हूं मैं

Friday, July 8, 2011

तस्वीर...


मेरे क़रीब से वो बिछड़ा कुछ इस तरह
पानी से जैसे दाग़ धुलता हो जिस तरह
कितनी मसर्रत थी मुझे उसके क़रीब से
वो आंधियों में मिलता था फानुस की तरह
मेरी तो ज़िदगी है एक खुली किताब सी
उसकी भी ज़िदगी में खुला अहसास था
वो वादियों में मिलके तबस्सुम सा लापता
मैं हैरां था कि दिल में कोई रंज़ो-ग़म न था
ऐ काश कोई उन तक मेरा ये पैग़ाम दे
जो हो सके तो लौटके ये पयाम दे
ग़र हो क़याम चार दिन इस ज़िदगी में भी
तस्वीर बदल जाऐगी इस मयक़दे की भी



Saturday, July 2, 2011

तस्वीर...


कुछ दिनों क़ब्ल ही मेरा अफ़रोज़ से तलाक हुआ था...वो ज़िंदगी को अपने ढंग से जीना चाहती थी और मैं अपने ढंग से...हालांकि कालेज की दोस्ती कब प्यार में तब्दील हो गई थी ये मुझे मालूम ही नहीं चला था...अफ़रोज़ की खूबसूरती पूरे कालेज में मशहूर थी...मैं उन दिनों रिसर्च के सिलसिले में कालेज में नया-नया आया था...उन्ही दिनों कैंटीन में कॉमन फ्रेंड के ज़रिए मेरी उससे मुलाकात हुई...उसकी आंखों में कुछ अलग सी कशिश थी जो मुझे उसकी और खींच ले गई...रिसर्च पूरी होने के बाद मैने नौकरी ज्वाइन कर ली...अब वक्त था कि मैं अफ़रोज़ से शादी के बारे में खुलकर बात कर सकूं...मैं उस वक्त हैरान रह गया जब मैंने कॉफी केफै़ हाउस में उसे शादी के लिए प्रपोज़ किया और वो फौरन मान गई...उसके वालिद ने भी फौरन हमारी शादी के लिए रज़ामंदी दे दी...पर अफ़सोस हमारी ये शादी ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी....इसकी क्या वुजूहात रहीं मैं खुद आज तक नहीं समझ पाया...जो लड़की मेरे बिना एक पल भी नहीं रह सकती थी वो मुझसे इतनी ख़फ़ा हो गई मैं खुद भी समझ नहीं पाया....छोटी-छोटी बातों को लेकर वो अक्सर झगड़ती,छोटी सी बात का तिल का ताड़ बना देती...मुझ पर शक करती...रात को देर से आने पर मुझसे हजारों सवालात करती मैं उसकी इन बातों से आजिज़ आ चुका था....बेहतर तो ये था कि मैं कुछ रोज़ के लिए उसे अकेला छोड़ देता ताकि मैं उसे समझने का मौका दे देता....आख़िर ऐसा करके भी कोई नताइज़ हासिल नहीं हुआ...वो और ज़्यादा आग-बबूला हो गई...मैं अम्मी के पास कुछ दिन की छुट्टी लेकर क्या गया उसने हंगामा बरपा कर दिया....मेरी अम्मी खुद इस बात से परेशान हो गई...हद तो ये हो गई कि वो बिना बताए वहीं आ गई और अम्मी पर फ़िकरे कसने शुरु कर दिए....इसी गुस्से में मैने एक जोर का तमाचा उसके मुंह पर जड़ दिया...आखिर एक हद होती है...वो फौरन वहां से पांव पटकती हुई चली गई...अम्मी ने काफ़ी समझाने की कोशिश की पर उसके सर पर तो जैसे भूत सवार था...उसने किसी की नहीं सुनी...
      मेरे घर में कदम रखते ही वो मुझ पर बरस पड़ी...मैं ठान चुका था कि अब पानी सर से उपर हो चुका है....उसने मुझसे तलाक का मुतालबा किया...मेरे पांव के नीचे से ज़मीन खिसक गई....मैं पूरी रात सो नहीं पाया....आख़िर माज़रा क्या है मैं समझ नहीं सका...वो क्यों मुझसे इतनी बेरुख़ी से पेश आती थी..मैं जान नहीं पाया...दोनों की ज़िंदगी में अब कुछ भी बाकी नहीं रह गया था...तलाक लेना ही मुनासिब था...अदालत ने हमारी तलाक पर अपनी मुहर लगा दी....दोनों ने अपना अपना रास्ता अख़्तियार कर लिया...कुछ दिन अम्मी मेरे साथ रही तो अकेले रहने का अहसास नही रहा मग़र अम्मी के जाते ही घर काटने को दौड़ता...नौकरी कर के किसी तरह पूरा दिन को कट जाता मगर रात का क्या करुं....कैसे कटेगी...यही सोचकर दिल घबरा उठता था...
       अचानक मेरा तबादला हो गया....थोड़ी राहत मिली...नई जगह नए लोग...अफ़रोज़ को भूलना इतना आसान नहीं था...रह-रहकर मुझे उसकी बातें याद आती थीं...मैं खुश था कि नए शहर मैं नई ज़िदगी को अपने ढंग से जी सकुंगा...हर इतवार अपनी आपा के पास चला जाता उसके बच्चों के साथ मेरा दिल बहल जाता था....आपा मेरे लिए गुपचुप तरीके से लड़की की खोजबीन कर रही थी...इसका इल्म हो गया था मुझे....आपा देखो अब में शादी नहीं करुंगा...क्यों नहीं करोगे क्या सारी उम्र ऐसे ही....हां आपा...ऐसे ही....क्या सिला मिला मुझे शादी करके...एक पल भी अफ़रोज़ ने नहीं सोचा कि तलाक के बाद मुझ पर क्या गुज़रेगी...देखो...नहीं आपा...मैने कह दिया न...कहकर मैं अपने घर चला आया....
     ये आपके अंडर में काम करेंगी....इनकी पूरी रिपोर्ट हर महीने पेश करेंगे आप...और यकीनन बेहतर काम निकलवा सकेंगें इनसे...जी बेहतर...बैठिए...क्या नाम है तुम्हारा...जी सायमा...देखो अपने काम पर ज़्यादा ध्यान देना...मुझे कोई भी शिकायत नहीं मिलनी चाहिए...ठीक है...जी...जाओ अब काम करो...
     सर..आप मुझे ऐसे क्यों घूर रहे हो...क्या मतलब....सर मैं....बदतमीज़...तुम्हे घूर कर क्या करुंगा मैं...चली जाओ अपने केबिन में...आइंदा इस तरीके की बात की तो खैर नहीं...अरे मैने अचानक तुम्हे देख लिया तो क्या हर्ज़ है...इसे तुम घूरना कहती हो....सारी सर...सारी की बच्ची...न जाने क्यों...सायमा ने मुझे अफ़रोज़ की याद दिला दी...एक बार उसने भी कैंटीन में मुझसे कहा था....तुम मुझे घूर क्यों रहे हो....क्या मेरी नज़र ही ऐसी है...शाम को आइने में गौर से अपना चेहरा और अपनी आंखें देख रहा था मैं....घंटों आइने के आगे खड़ा रहा...फोन की घंटी बजने पर ही मेरी नज़र आईने से हटी....ये क्या हो रहा है मुझे...कहीं मैं...नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता...डाक्टर साहब मेरी आंखे चेक करें...लोग मुझे अक्सर कहते हैं कि मैं उन्हे घूरता हूं....ये आपका वहम है...और कुछ नहीं...जब भी कोई आपसे मज़ाक मैं कुछ कहता है तो आप उसे संजीदा तौर से ले लेते हैं....ऐसा न करें...जी..शुक्रिया....
      सर आप फिर से मुझे घुर रहे हैं....मैं हैरान था...मैं तुम्हे क्यों घूरुंगा भला...मुझे तुममे कोई दिलचस्पी है ही नहीं...सर मैं तो मज़ाक कर रही थी...आपसे कल भी मज़ाक किया तो आप बुरा मान गए....नहीं ऐसी कोई बात नहीं....और फ़िर एक दिन...अरे सायमा कहां है....सर पता नहीं...कहां रहती है वो...मालुम नहीं...कहां...पगली तुम्हे इतनी तेज़ बुख़ार है और तुमने बताया तक नहीं...आपा कुछ दिनों के लिए सायमा यहीं रहेगी जब तक इसकी तबियत ठीक नहीं हो जाती....लेकिन इसके खानदानवालों को तो फोन कर दो....आपा वो सहारनपुर में रहते हैं...एक-दो दिन लगेगें आने में...ठीक है....मैं आफ़िस निकलता हूं शाम को आउंगा....कैसी है अब सायमा थोड़ी बेहतर है पहले से सर....
       और फ़िर शाम को...कैसे बिमार हुईं तुम....आपा ने पूछा...इनके घुरने से...मुझे आग लग गई....कहीं ये पागल तो नहीं....तू तो कह रहा था कि अब मुझे लड़कियों में कोई दिलचस्पी नहीं है...तो फ़िर ये क्या है...आपा पागल है ये...जब देखो यही सवाल करती रहती है....और फ़िर बाद में माफ़ी भी मांग लेती है....मुझे नहीं मालुम इसे ये बिमारी कब से है...चलो खैर खाना खा लो....एक भी निवाला मेरे मुंह में नहीं जा रहा था...गुस्से के मारे...अजीब पागल लड़की है..कहीं भी कुछ भी बोल देती है....तभी उसके अहलेखाना भी आ पंहुचे....आपने हमारी बेटी का ख़्याल रखा इसका आपका बहुत-बहुत शुक्रिया....हम लफ़्ज़ों में बयां नहीं कर सकते कि इस अंजान शहर मैं भी कोई किसी का हो सकता है....
       आइंदा अगर तुमने घूरने वाली बात किसी के सामने कही तो समझ लेना..अरे मैं तुम्हे क्यों घुरूंगा भला...तुम शायद नहीं जानती कि मेरा तलाक हो चुका...कितना दर्द सहा है मैने अपनी गुजिश्ता ज़िदगी में...अपनी सारी हक़ीकत शुरु से आख़िर तक उसके सामने बयां कर डाली मैने...कब वक्त बीत गया पता ही न चला...सर मुझे माफ़ कर दो....मैंने आपका दिल दुखाया है....आप इतने नेक इंसान हैं ये मुझे उस दिन मालुम हो गया था जब आप डाक्टर को लेकर मेरे घर आऐ थे....आप का मेरा तो कोई रिश्ता भी नहीं है....और आप और मैं तो ज़्यादा घुले-मिले भी नहीं फ़िर भी आपने बिना ये सब जाने मेरी सेहत का कितना ख़्याल रखा मैं ताउम्र नहीं भूल सकुंगी ये सब....
      आप कल ही ज्वाइन कर लें तो बेहतर होगा....जी सर मैं रात को ही देहली निकल जाउंगा रात को नहीं शाम तक निकल जाओ...ठीक है...सर...ठीक है आपा अपना ख़्याल रखना....आता-जाता रहूंगा....कैसी नौकरी है तुम्हारी हर छह महीने में तबादला हो जाता है....और सायमा का क्या....क्या मतलब सायमा का क्या...अरे मुझे उससे क्या लेना...वो अपनी ज़िदगी में खुश है...और मैं खुश रहने की कोशिश कर रहा हूं....अब फिर से तुम्हे देहली मैं अफ़रोज़ की याद नहीं आऐगी...आपा वो मेरा माज़ी बन गई है....मुझे अपना मुस्तक़बिल देखना है...चलता हूं....एक मिनट ठहरो...वो देखो तुम्हारा मुस्तक़बिल सामने खड़ा है....अचानक नज़र गई तो सामने सायमा खड़ी थी...आपा पागल हो क्या मुझे ये मज़ाक पसंद नहीं....जाते-जाते मेरा मूड ऑफ मत करो....मेरे इतना कहते ही सायमा मुझसे लिपट गई....मुझे छोड़कर मत जाइऐ सर....मैं आपसे बिना मर जाउंगी...जी नहीं पाउंगी आपके बगैर...आप जैसा भी कहेंगें मैं वैसा ही करुंगी...अरे छोड़ो मुझे ये क्या पागलपन है...मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता...क्यों...आख़िर क्या कमी है मुझमें..कोई कमी नहीं है पर अब मैं अपनी ज़िदगी अकेले ही जीना चाहता हूं....अकेले...अकेले ज़िदगी जी लोगे तुम...अभी तो जवान हो....बुढ़ापे का क्या...और कब एक पंख से पक्षी उड़ा है आसमान में...कब तक आख़िर कब तक.... किसी एक के जाने से ज़िदगी तो नहीं रुक जाती.... सायमा के चेहरे पर नज़र जाते ही मेरा गुस्सा काफ़ूर हो गया....मैं कितना ग़लत था आपा...कमी मुझमें भी तो होगी जो अफ़रोज़ ने मुझे छोड़ा पर शायद सायमा तुम्हे ताउम्र न छोड़ पाऐ...आपा ने ठंडी आह भरते हुए कहा...क्योंकि इसकी आंखों में सच्ची मुहब्बत नज़र आयी है मुझे....अब जाओ और जल्द ही वापस आना....तुम्हे एक से दो करना है....जी ज़रुर....मैं मुसकुराकर एयरपोर्ट के लिए निकल पड़ा....