Saturday, July 9, 2011

एहसास...


अजीब कशमकश में हूं साहब
बड़ी उलझन मैं जी रहा हूं मैं
चार टुकड़े हो गए हैं बेक़सूर जिस्म के
एक दिल,एक वो,एक हम, एक तुम
क्या हुआ एहसास को मर गया है शायद
फ़िर मुकद्दर ले के आया उसी मंज़र पर
खो गई हैं बिजलियां सी वो कहीं गुमशुदा
ढुढंना मुमकिन नहीं है कैसे ढूंढे हम उन्हे
एक शाम,एक रात,एक सुबह,एक शब
क्या हुआ एहसास को मर गया है शायद
अजीब कशमकश में हूं साहब
बड़ी उलझन मैं जी रहा हूं मैं

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