Tuesday, August 23, 2011

क्या हम सचमुच पत्रकार हैं....


सुबह से शाम,शाम से रात और शायद दिन निकलने तक एक टी.वी पत्रकार की ज़िदगी खुद किसी ख़बर से कम नहीं है। उसकी ज़िदगी का ज़्यादातर हिस्सा भागदौड़ करते हुए गुज़रता है,इस ज़िदगी में उसे शायद खुद भी पता नहीं होता कि वो किस दिशा में जा रहा है। उसका कैरियर क्या मोड़ लेगा,एक पल को अगर वो खुद का आंकलन कर ले तो यकीनन उसकी रुह कांप जाऐगी।मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि मेरे एक मित्र की काम के चक्कर में इतनी तबियत ख़राब हो गई कि उसे इमरजंसी में भर्ती करवाना पड़ा।उसका चेहरा देखकर मुझे उस पर तरस भी आया और खुद के पत्रकार होने पर शर्म भी,क्योंकि हमें इतना भी हक़ नहीं है कि हम अपने उपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठा सकें। नौकरी खोने के चक्कर में हम दिन रात काम करेत रहते हैं लेकिन उसका प्रतिफल आख़िर मिलता क्या है। मैने अपने उस मित्र से मजाक करते हुए उस पर कटाक्ष किया कि यार हमें इतनी भी सैलरी नहीं मिलती कि हम किसी अच्छे डॉक्टर से अपना इलाज करा सकें।
        कुछ लोग जो शायद मीडिया की हक़ीक़त से अंजान हैं वो मेरे इस लेख से जान जाऐंगे कि मीडिया में आकर कैसे एक इंसान मशीन की तरह काम करता है। पूरा दिन गधे की तरह काम करके भी उसे कुछ हासिल नहीं,कब उसे किसी छोटी सी बात पर डांट दिया जाऐ य़ा फ़िर कब उसकी नौकरी चली जाऐ उसे खुद नहीं मालुम।जिस तोजी के साथ चैनल में ख़बरें आती हैं उसी तेजी के साथ उसकी काम करने की क्षमता का भी आंकलन होता है। दिन भर कैमरे के सामने बोलना और शाम को आकर अपने लोगों से बतियाना उसकी ज़िदगी का हिस्सा होता है। पूरा दिन भागदौड़ करके जब शाम को चैनल में वापसी होती है तो उसे कोई रिस्पोंस नहीं मिलता,वो चाहे कितनी भी अच्छी और तगड़ी रिपोर्टिंग कर ले अगर वो चैनल की राजनीति नहीं जानता तो उसकी भागदौड़ करना बेकार है।
        चैनलों की बढ़ती तादात और कुकुरमुत्ते की तरह खुलते मीडिया स्कूलों ने रही सही कसर पूरी कर दी,मोटी फीस वसूल कर वो पत्रकारिता के स्टुडेंट को सड़क पर छोड़ देते हैं बिना मिडिया की सच्चाई बताये हुए। जब वही स्टुडेंट किसी चैनल में नौकरी करता है तो उसके सिर से मीडिया का भूत बहुत जल्दी उतर जाता है।आज हर न्यूज़ चैनल में निचले स्तर पर इतना कम पैसा दिया जाता है कि उससे शायद वो अपने लिए ढंग के कपड़े भी न खरीद सके पर अच्छे की उम्मीद में वो संघर्ष करता रहता है। और एक दिन ऐसा भी आता है जब वो हार मान लेता है। अख़बारों में तो श्रमजीवी के तहत पत्रकारों की यूनियन बनी होती हैं और उनकी नौकरी और पैसा ठीक-ठाक होता है मग़र न्यूज़ चैनल में तो पत्रकार इसके भी हक़दार नहीं,अगर किसी ने अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाई तो समझो वो गया काम से।
     कपड़ों की तरह नौकरी बदलते और दिन रात नौकरी पर मंडराते ख़तरे के मद्देनज़र एक पत्रकार किस परिस्थितियों में काम करता है ये वो ही बेहतर जानता है।न्यूज़ चैनलों में राजनीति इतनी होती है कि बड़े से बड़ा नेता भी मात खा जाऐ। अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में कुछ लोग बड़े ओहदों पर बैठे लोगों के तलवे चाटते रहते हैं,उनका पत्रकारिता से कोई लेना देना नहीं और न ही वो लेना देना चाहते,उन्हे तो बस मीडिया में रहना है अपना भौकाल दिखाने के लिए,इसलिए आए दिन कुछ पत्रकारों की पिटाई के मामले सामने आते रहते हैं। समाज का जिम्मेदार नागरिक होने के नाते पत्रकार को अपनी आवाज़ को बुलंद करना चाहिए लेकिन अफ़सोस कि सड़क पर खड़ा होकर समाज की भलाई की दुहाई देने वाला अपनी खुद की भलाई नहीं कर पाता।
      पत्रकारों की दयनीय स्थिति से ऐसा नहीं है कि सरकार वाकिफ़ नहीं है मग़र वो जान कर भी ऐसा ठोस कदम नहीं उठाती जिससे कि पत्रकार अपनी ज़िदगी के आख़िरी मोड़ पर पंहुचकर शांति महसूस कर सके,रही सही कसर उसके अपने निकाल देते हैं। अगर चैनलों को लाइसेंस देने से पहले कुछ मानक तय कर लिए जाऐं तो पत्रकार अपनी नौकरी और ज़िदगी में कुछ हद तक कामयाब हो सकेगा वरना वो ऐसे ही अपनी ज़िदगी गंवा देगा और आखिर में उसके हाथ कुछ भी लगने वाला नहीं।   

Saturday, August 13, 2011

और उसने रोते हुए जर्नलिज्म छोड़ दिया...


सर...एक आप ही हैं जिन्होने मुझे इस दलदल से बाहर निकालने में मदद की,वरना मैं तो इसमें धंसती ही चली जा रही थी। चार साल हो गए सर लेकिन मेरी इंक्रीमेंट तो छोड़ो आने-जाने तक का नहीं दिया जाता...चार साल में चार जगह रही पर सभी जगह हालात एक जैसे हैं...इतनी पोलिटिक्स होती है कि मैं बयां नहीं कर सकती...शुक्र है कि आपने मेरी मदद की और अब मैं शायद अच्छी और सुकून वाली ज़िदगी गुज़ार सकूंगी...एक ही सांस में न जाने कितनी बात बोल गई वो और उतनी बार शुक्रिया अदा भी किया,उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट के साथ-साथ मीडिया और इससे जुड़े लोगों से मिली कड़वाहट साफ़ नज़र आ रही थी। जितना दुख उसे इस फिल्ड को अलविदा कहने का हो रहा था उतनी ही खुशी उसे अपने भविष्य को लेकर हो रही थी।
      पिछले साल ही वो यहां काम करने आई थी...एक साथ पूरा प्रोग्राम संभालने के साथ कई दूसरे काम में भी महारत हासिल थी उसे...मेहनती और काम को लेकर जुनुनी भी...कभी-कभी काम को लेकर सीनियरों से भी भिड़ जाती...उसे देखकर लगता था कि वो अपनी ज़िदगी में एक अच्छी जर्नलिस्ट साबित होगी...मुझसे मिलती तो हमेशा सुख-दुख की बात किया करती न जाने क्यों अक्सर मुझे चाय पिलाने के बहाने अपनी बातें और प्रोग्राम को और बेहतर करने से लेकर अंदरखाने की पालिटिक्स के बारे में बतियाया करती...वक्त गुज़र रहा था लेकिन कहीं न कहीं उसे अंदर से एक डर सताता रहता था,और वो डर था कभी भी नौकरी से निकाले जाने का...लड़की जात होने और घर से दूर होने की वजह से भी कभी-कभी सीनियरों के कहे मुताबिक़ काम करती मग़र उसी रोज़ बैचेन भी हो जाती थी...उसकी बैचेनी का असर उसके चेहरे पर साफ़ पढ़ा जाता था...सर पता है कल मेरी शिकायत कर दी किसी ने एडीटर से...और एडीटर बिना सच्चाई जाने मुझे काफ़ी सुना रहा था...सर चार साल हो गए हैं मुझे काम करते हुए...क्या बुरा है और क्या भले मैं भी समझने लगी हूं...पर समझ नहीं पा रही हूं कि अच्छा काम करने पर कुछ लोगों को जलन किस बात की होती है...मैं चुपचाप हैरान उसकी बातों को सुन रहा था...उसकी बातों में मुझे अपना अक्स नज़र आ रहा था...कभी मैं भी...पर आज हालात ने मुझे कितना बदल दिया मेरे सामने कुछ भी हो जाऐ मुझे कुछ असर जैसे होता ही नहीं...हैलो...सर कहां खो गए आप...कहीं नहीं...हां...बताओ..सर मेरा पैसा बढ़ाया नहीं अभी तक.. जब मैं जोब पर आई थी तो कहा गया था कि जल्द ही पैसा बढ़ा दिया जाऐगा मग़र अभी तक कोई रिस्पोंस नहीं मिला बस आश्वासन ही मिल रहा है...
     अरे कैसी हो तुम...बस सर अच्छी हूं... इतनी उदास क्यों हो, क्या हुआ...चलो चाय पीने चलते हैं...नहीं सर मेरा मन नहीं है...अरे चलो तो सही...मुझे कुछ बात करनी है तुमसे...बुझे मन से मेरा दिल रखने के लिए चाय की दुकान तक आ गई वो, मग़र आज चाय जैसे उसे ज़हर लग रही हो...अरे क्या हुआ...कुछ बताओ तो सही...सर मैने जर्नलिज्म छोड़ने का फैसला कर लिया है...पर क्यों...नहीं सर मुझे लगता है कि मैं आगे नहीं बढ़ पाउंगी...जिस सोच को लेकर मैने इस फील्ड में क़दम रखा था...वो शायद कभी पूरी नहीं हो पाऐगी...आप चाहे जितना भी अच्छा काम कर लो...लोग आपको जीने नहीं देंगें...और रही सही कसर पूरी कर देते हैं वो लोग जो दिन भर सीनियरों के तलवे चाटकर अपनी नौकरी बचाने में लगे रहते हैं...
     मैं हैरान उसे देखता रह गया...जो लड़की जर्नलिज्म के लिए मरने-मिटने को तैयार रहती थी वो ऐसा फैसला क्यों ले रही है...क्या ये मेरे लिए संकेत तो नहीं...क्योंकि मुझे भी अंदर से ये इसकी कड़वी सच्चाई और नंगेपन के बारे में मालुम था मग़र...आख़िर इन सात सालों में क्या हासिल कर पाया मैं...क्या मैं भी सीनियरों के तलवे चाटूं या फिर गंदी पालिटिक्स शुरु कर दूं...मग़र ये तो मेरी फ़ितरत मैं नहीं...अंदर से सहम गया मैं...सर एक बात और है इस फील्ड में... आप चौबिसों घंटे तनाव में जीते हैं...क्या फ़ायदा ऐसी नौकरी का...कभी छुट्टी लेने का मन हो तो नहीं मिलती...संडे को जब दुनिया आराम और इंज्वाय करती है तो हमें उस दिन भी काम करना होता है...मैं तो ठान चुकी हूं सर...बहुत हो गया...उब चुकी हूं मैं...क्या सोचकर आई थी मैं...पर...उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे...