Monday, May 30, 2011

बडे़ बे-आबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले…..


              
जिस तेजी के साथ जर्नलिज्म में लोग आ रहे हैं उतनी ही तेजी के साथ इसको छोड़ने वालों की भी कमी नहीं है। आज जर्नलिज्म में सिर्फ़ वही टिक सकता है जिसके लिंक अच्छे हों चाहे उसे जर्नलिज्म की समझ हो या न हो। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि मैरे सामने न जाने कितने लोगों ने इस फिल्ड को अलविदा कह दिया और कुछ ऐसे हैं जो जल्द ही इसे अलविदा कहने के मूड में हैं। उनका साफ़तौर पर कहना है कि इस जर्नलिज्म के चक्कर में कहीं वो बर्बाद न हो जाएं,ऐसा इसलिए कि उन्होने जर्नलिज्म का बाहरी रुप देखकर इसे अपनाने का फैसला तो कर लिया मगर इसकी ज़मीनी हकीकत को नहीं पहचाना। जिसने जितनी जल्दी इसे पहचान लिया वो कामयाब हो गया मगर कुछ ऐसे हैं जो हार मानने को तैयार नहीं है। दरअसल ऐसा सिर्फ़ इसलिए कि आज जर्नलिज्म पूरी तरह से बदल चुका है,अगर आपको इस फिल्ड में टिकना है तो आपको अपने लिंक पहले से ही तैयार करके आना होगा। हालांकि इस क्षेत्र में ज्यादा प्रतिस्पर्धा नहीं है लेकिन नौकरी पाने के लिए आपको कई कोरे आश्वासनों से गुज़रना पड़ता है। ऐसे में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपने दम पर इस क्षेत्र में मुकाम बना पाते हैं।
       आज जर्नलिज्म बांसुरी की तरह हो गया है,बाहर से सुरीला मगर अंदर से खोखला, इतना खोखला कि आप इसकी सच्चाई जानकर हैरत में पड़ जाऐंगे। इसमें काम करने वाले कई लोग इस पेशे को अपनाकर तनाव की ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। नौजवान लड़के-लड़कियां ग्लैमर के चक्कर में फंसकर लाखों रुपए की फ़ीस चुकाकर जब इस क्षेत्र में काम करने आते हैं तो उनके होश फ़ाख्ता हो जाते हैं। काम की अधिकता,कम पैसा,चापलूसी,रौबदाब,कम छुट्टियां कुछ ऐसी चीज़े हैं जो कई सभ्य लोगों को बड़ी ही नागवार गुज़रती हैं। लेकिन फ़िर भी वो उम्मीद की किरण के फेर में इसमें काम करते रहते हैं।
     इस क्षेत्र में सबसे बड़ी जो दिक्कत है वो है तनाव,तनाव इतना कि आदमी अपनी आधी उम्र ऐसे ही गुज़ार देता है। बड़े पदों पर बैठे लोग कभी भी ये जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके कर्मचारी किस माहौल में अपने आपको ढाले हुए हैं। वो ये भी जानने की कोशिश नहीं करते कि कैसे उनके कर्मचारियों का तनाव दूर हो। टीवी पर चीख-चीखकर समाज की तरफ़दारी का भौंडा प्रर्दशन करने वाले एक पल को ये भूल जाते हैं कि खुद उनके अपने तनाव कि ज़िदगी जी रहे हैं। चौबीसों घंटे के न्यूज़ चैनल में काम करने वाले लोगों को देखकर भले ही ये लगता हो कि ये ऐश की ज़िंदगी जी रहे हैं मगर सच्चाई इसके उलट है। वो अंदर ही अंदर कितना घुटते हैं ये शायद वो ही बेहतर जानते हैं।
    ऐसा नहीं है कि इस पेशे में कोई बुराई है,या ये पेशा बुरा है मगर कुछ लोगों की वजह से आज जर्नलिज्म बदनाम हो चुका है। अपने हक की आवाज़ उठाने से ही डरते हैं लोग। ये लोग मंहगाई के इस दौर में चंद रुपयों पर ही काम करने को मजबूर हैं। इसमें गलती आख़िर किसकी है उनकी जो इसमें काम कर रहे हैं या उनकी जो उच्च पदों पर बैठे हैं या फ़िर सरकार की जो ये जानने की कोशिश ही नहीं करती कि लोकतंत्र के चौथे खंभे को थामें लोगों की ज़िदगी आख़िर कैसे चलती है, वो ये भी जानने की कोशिश नहीं करती कि पत्रकार को कितना और कैसा पैसा मिलना चाहिए जिससे कि वो अपनी ज़िंदगी आराम से गुज़ार सके। अब ऐसे में लोग इस पेशे को छोड़ रहे हैं तो इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं है मग़र ऐसा होना नहीं चाहिए नहीं तो आने वाली पीढ़ी का जर्नलिज्म से विश्वास उठ जाएगा और वो दौर भी आ सकता है जब हम ख़बरों को जानने के लिए तरस जाऐंगे और अच्छे लोग मिलना बेहद मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में उन लोगों को जो वास्तव में पत्रकारिता करना चाहते हैं उन्हे आगे लाना ही होगा ताकि नई पीढ़ी उनसे प्रेरणा लेकर इस पेशे को नज़रअंदाज़ न कर सके।
                                          

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