Thursday, January 6, 2011

जिम्मेदार भुमिका निभाए मीडिया.....


6 जनवरी को पत्रकारिता दिवस को पुरे 185 साल हो गए,उदंत मार्तंड से शुरु भारतीय पत्रकारिता ने यूं तो कई पड़ाव पार किऐ हैं। लेकिन गैर-मुल्कों, जिसमें कि अमेरिका और विकसित देश शामिल हैं उनके सामने अभी भी भारतीय पत्रकारिता शिशु अवस्था में है। आज़ादी से पहले भारत में पत्रकारिता समाज में जागृति लाने के लिऐ जानी जाती थी। कई बड़े और नामचीन पत्रकार उस वक्त आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे।और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने कलम का हुनर दिखा रहे थे,कई अख़बार उस वक्त चंदे से जुटे पैसों से चल रहे थे। खुद महात्मा गांधी ने ؛हरिजन' नाम से अख़बार निकाला। हालांकि इसे खरीदने वालों की कमी नहीं थी, क्योंकि इसके साथ गांधीजी का नाम जुड़ा था। लेकिन इसके अलावा भी और कई अख़बार और पत्रिकाऐं जैसे-तैसे छप रहे थे। खास बात ये थी कि उस वक्त पत्रकारिता को मिशन के तौर पर लिया जाता था, लेकिन आज 21वीं सदी में हालात बदल गऐ हैं।
       आज हमारे देश में लाखों की संख्या में अख़बार छप रहे हैं लेकिन अब ये अख़बार व्यवसायिकता के रंग में रंग चुके हैं। भले ही ये पत्रकारिता को अपनाने का बढ़-चढ़ दावा करते हों लेकिन सच्चाई ख़बर पढ़ने वाले के सामने है। आज कोई भी सुधी पाठक दो से तीन मिनट में अख़बार पढ़ कर एक तरफ़ डाल देता है। इसका कारण साफ़ है,ज्यादातर अख़बार विज्ञापनों से अटे पड़े होते हैं। पूरे अख़बार में चोरी,डकैती,रैप और सनसनीखेज़ ख़बरों का अंबार होता है। पाठक को सामजिक मुद्दों से जुड़ी खबरें कम ही पढ़ने को मिलती हैं।
       नये ज़माने के साथ-साथ इलैक्ट्रोनिक मीडिया के बढ़ते चलन ने ख़बरों को भले ही नया रुप दे दिया हो लेकिन अभी भी वो जनता की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाये हैं। इसका कारण है कि वे ऐसी ख़बरों को तवज्जो ही नहीं देते जो सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई हैं। उनका कहना है कि हम वो ख़बर दिखाते हैं जो आवाम देखना और पढ़ना चाहती है। व्यवसायिकता की अंधी दौड़ में वे एक पल के लिए भूल जाते हैं कि हर काम पैसा कमाने के लिए नहीं होता।
      पत्रकारिता को जो सबसे बड़ा झटका लगा है वो ये हे कि आज किसी भी मीडिया संस्थान में उच्च पदों पर ऐसे लोग क़ाबिज़ हैं,जिनको पत्रकारिता की एबीसीडी भी मालुम नहीं है। वो ज्यादातर या तो संस्थान के मालिक के वारिस हैं या फिर एमबीए किऐ मैनेजर.....उनसे भले ही पैसा कमाने की अपेक्षा की जा सकती है किंतु स्वस्थ पत्रकारिता की उम्मीद करना उनसे बेइमानी ही होगी।पत्रकारिता का लक्ष्य है जो कुछ भी ग़लत हो रहा है उसे जनता के सामने लाना,लेकिन आज पैसा लेकर ख़बरों को दबा देना आम बात है।
        अखबार और टीवी चैनल रहें न रहें लेकिन पत्रकारिता हमेशा रहेगी। आख़िर सूचना की ज़रूरत किसे नहीं है, देश की सरकार भी इसी पर निर्भर है। ख़बर चटपटा समोसा नहीं जो चट से खाया और पच गया, ख़बर असर करती है। ऐसा असर जो शायद दुर तक पंहुचता है।  यह बात मीडिया वालों को समझनी होगी,ख़बर और सूचना के माध्यम से ही हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी है। मीडिया के सामने चुनौती है कि वह उसे आम और ख़ास लोगों तक कैसे पंहुचाती है। ख़बर बनाते वक्त मीडिया वाले दुनियाभर की बातें कहते हैं, पर अंदर ख़बर आते ही उसे बदल देते हैं जो बिकेगा वहीं देंगे, ये धारणा बदलनी होगी। चूंकि बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, वक्त भी लगता है। उसके लिए रिसर्च की ज़रूरत भी होती है। लेकिन मीडिया वह करना नहीं चाहती या कर नहीं पाती।
       हमारे देश में आम रिवाज़ है कि हम दूसरे की कमियां तो निकाल लेते हैं लेकिन खुद की बात आऐ तो हमें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं होता...यही आज की मीडिया का भी हाल है...अपनी चादर फटी है लेकिन दूसरे की चादर फाड़ने को बेताब है....क्या इसके लिए कुछ किया नहीं जा सकता…? अगर मीडिया को अपना अस्तित्व बचाऐ रखना है तो उसे समाज़ में जिम्मेदार भुमिका अदा करनी ही होगी क्योंकि पत्रकारिता कभी मर नहीं सकती,ये हमेशा जिंदा रहेगी।
                   इंतिख़ाब आलम अंसारी,कोरोस्पोंडेंट,चैनल वन,नोएडा।        

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