Tuesday, August 23, 2011

क्या हम सचमुच पत्रकार हैं....


सुबह से शाम,शाम से रात और शायद दिन निकलने तक एक टी.वी पत्रकार की ज़िदगी खुद किसी ख़बर से कम नहीं है। उसकी ज़िदगी का ज़्यादातर हिस्सा भागदौड़ करते हुए गुज़रता है,इस ज़िदगी में उसे शायद खुद भी पता नहीं होता कि वो किस दिशा में जा रहा है। उसका कैरियर क्या मोड़ लेगा,एक पल को अगर वो खुद का आंकलन कर ले तो यकीनन उसकी रुह कांप जाऐगी।मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि मेरे एक मित्र की काम के चक्कर में इतनी तबियत ख़राब हो गई कि उसे इमरजंसी में भर्ती करवाना पड़ा।उसका चेहरा देखकर मुझे उस पर तरस भी आया और खुद के पत्रकार होने पर शर्म भी,क्योंकि हमें इतना भी हक़ नहीं है कि हम अपने उपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठा सकें। नौकरी खोने के चक्कर में हम दिन रात काम करेत रहते हैं लेकिन उसका प्रतिफल आख़िर मिलता क्या है। मैने अपने उस मित्र से मजाक करते हुए उस पर कटाक्ष किया कि यार हमें इतनी भी सैलरी नहीं मिलती कि हम किसी अच्छे डॉक्टर से अपना इलाज करा सकें।
        कुछ लोग जो शायद मीडिया की हक़ीक़त से अंजान हैं वो मेरे इस लेख से जान जाऐंगे कि मीडिया में आकर कैसे एक इंसान मशीन की तरह काम करता है। पूरा दिन गधे की तरह काम करके भी उसे कुछ हासिल नहीं,कब उसे किसी छोटी सी बात पर डांट दिया जाऐ य़ा फ़िर कब उसकी नौकरी चली जाऐ उसे खुद नहीं मालुम।जिस तोजी के साथ चैनल में ख़बरें आती हैं उसी तेजी के साथ उसकी काम करने की क्षमता का भी आंकलन होता है। दिन भर कैमरे के सामने बोलना और शाम को आकर अपने लोगों से बतियाना उसकी ज़िदगी का हिस्सा होता है। पूरा दिन भागदौड़ करके जब शाम को चैनल में वापसी होती है तो उसे कोई रिस्पोंस नहीं मिलता,वो चाहे कितनी भी अच्छी और तगड़ी रिपोर्टिंग कर ले अगर वो चैनल की राजनीति नहीं जानता तो उसकी भागदौड़ करना बेकार है।
        चैनलों की बढ़ती तादात और कुकुरमुत्ते की तरह खुलते मीडिया स्कूलों ने रही सही कसर पूरी कर दी,मोटी फीस वसूल कर वो पत्रकारिता के स्टुडेंट को सड़क पर छोड़ देते हैं बिना मिडिया की सच्चाई बताये हुए। जब वही स्टुडेंट किसी चैनल में नौकरी करता है तो उसके सिर से मीडिया का भूत बहुत जल्दी उतर जाता है।आज हर न्यूज़ चैनल में निचले स्तर पर इतना कम पैसा दिया जाता है कि उससे शायद वो अपने लिए ढंग के कपड़े भी न खरीद सके पर अच्छे की उम्मीद में वो संघर्ष करता रहता है। और एक दिन ऐसा भी आता है जब वो हार मान लेता है। अख़बारों में तो श्रमजीवी के तहत पत्रकारों की यूनियन बनी होती हैं और उनकी नौकरी और पैसा ठीक-ठाक होता है मग़र न्यूज़ चैनल में तो पत्रकार इसके भी हक़दार नहीं,अगर किसी ने अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाई तो समझो वो गया काम से।
     कपड़ों की तरह नौकरी बदलते और दिन रात नौकरी पर मंडराते ख़तरे के मद्देनज़र एक पत्रकार किस परिस्थितियों में काम करता है ये वो ही बेहतर जानता है।न्यूज़ चैनलों में राजनीति इतनी होती है कि बड़े से बड़ा नेता भी मात खा जाऐ। अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में कुछ लोग बड़े ओहदों पर बैठे लोगों के तलवे चाटते रहते हैं,उनका पत्रकारिता से कोई लेना देना नहीं और न ही वो लेना देना चाहते,उन्हे तो बस मीडिया में रहना है अपना भौकाल दिखाने के लिए,इसलिए आए दिन कुछ पत्रकारों की पिटाई के मामले सामने आते रहते हैं। समाज का जिम्मेदार नागरिक होने के नाते पत्रकार को अपनी आवाज़ को बुलंद करना चाहिए लेकिन अफ़सोस कि सड़क पर खड़ा होकर समाज की भलाई की दुहाई देने वाला अपनी खुद की भलाई नहीं कर पाता।
      पत्रकारों की दयनीय स्थिति से ऐसा नहीं है कि सरकार वाकिफ़ नहीं है मग़र वो जान कर भी ऐसा ठोस कदम नहीं उठाती जिससे कि पत्रकार अपनी ज़िदगी के आख़िरी मोड़ पर पंहुचकर शांति महसूस कर सके,रही सही कसर उसके अपने निकाल देते हैं। अगर चैनलों को लाइसेंस देने से पहले कुछ मानक तय कर लिए जाऐं तो पत्रकार अपनी नौकरी और ज़िदगी में कुछ हद तक कामयाब हो सकेगा वरना वो ऐसे ही अपनी ज़िदगी गंवा देगा और आखिर में उसके हाथ कुछ भी लगने वाला नहीं।   

Saturday, August 13, 2011

और उसने रोते हुए जर्नलिज्म छोड़ दिया...


सर...एक आप ही हैं जिन्होने मुझे इस दलदल से बाहर निकालने में मदद की,वरना मैं तो इसमें धंसती ही चली जा रही थी। चार साल हो गए सर लेकिन मेरी इंक्रीमेंट तो छोड़ो आने-जाने तक का नहीं दिया जाता...चार साल में चार जगह रही पर सभी जगह हालात एक जैसे हैं...इतनी पोलिटिक्स होती है कि मैं बयां नहीं कर सकती...शुक्र है कि आपने मेरी मदद की और अब मैं शायद अच्छी और सुकून वाली ज़िदगी गुज़ार सकूंगी...एक ही सांस में न जाने कितनी बात बोल गई वो और उतनी बार शुक्रिया अदा भी किया,उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट के साथ-साथ मीडिया और इससे जुड़े लोगों से मिली कड़वाहट साफ़ नज़र आ रही थी। जितना दुख उसे इस फिल्ड को अलविदा कहने का हो रहा था उतनी ही खुशी उसे अपने भविष्य को लेकर हो रही थी।
      पिछले साल ही वो यहां काम करने आई थी...एक साथ पूरा प्रोग्राम संभालने के साथ कई दूसरे काम में भी महारत हासिल थी उसे...मेहनती और काम को लेकर जुनुनी भी...कभी-कभी काम को लेकर सीनियरों से भी भिड़ जाती...उसे देखकर लगता था कि वो अपनी ज़िदगी में एक अच्छी जर्नलिस्ट साबित होगी...मुझसे मिलती तो हमेशा सुख-दुख की बात किया करती न जाने क्यों अक्सर मुझे चाय पिलाने के बहाने अपनी बातें और प्रोग्राम को और बेहतर करने से लेकर अंदरखाने की पालिटिक्स के बारे में बतियाया करती...वक्त गुज़र रहा था लेकिन कहीं न कहीं उसे अंदर से एक डर सताता रहता था,और वो डर था कभी भी नौकरी से निकाले जाने का...लड़की जात होने और घर से दूर होने की वजह से भी कभी-कभी सीनियरों के कहे मुताबिक़ काम करती मग़र उसी रोज़ बैचेन भी हो जाती थी...उसकी बैचेनी का असर उसके चेहरे पर साफ़ पढ़ा जाता था...सर पता है कल मेरी शिकायत कर दी किसी ने एडीटर से...और एडीटर बिना सच्चाई जाने मुझे काफ़ी सुना रहा था...सर चार साल हो गए हैं मुझे काम करते हुए...क्या बुरा है और क्या भले मैं भी समझने लगी हूं...पर समझ नहीं पा रही हूं कि अच्छा काम करने पर कुछ लोगों को जलन किस बात की होती है...मैं चुपचाप हैरान उसकी बातों को सुन रहा था...उसकी बातों में मुझे अपना अक्स नज़र आ रहा था...कभी मैं भी...पर आज हालात ने मुझे कितना बदल दिया मेरे सामने कुछ भी हो जाऐ मुझे कुछ असर जैसे होता ही नहीं...हैलो...सर कहां खो गए आप...कहीं नहीं...हां...बताओ..सर मेरा पैसा बढ़ाया नहीं अभी तक.. जब मैं जोब पर आई थी तो कहा गया था कि जल्द ही पैसा बढ़ा दिया जाऐगा मग़र अभी तक कोई रिस्पोंस नहीं मिला बस आश्वासन ही मिल रहा है...
     अरे कैसी हो तुम...बस सर अच्छी हूं... इतनी उदास क्यों हो, क्या हुआ...चलो चाय पीने चलते हैं...नहीं सर मेरा मन नहीं है...अरे चलो तो सही...मुझे कुछ बात करनी है तुमसे...बुझे मन से मेरा दिल रखने के लिए चाय की दुकान तक आ गई वो, मग़र आज चाय जैसे उसे ज़हर लग रही हो...अरे क्या हुआ...कुछ बताओ तो सही...सर मैने जर्नलिज्म छोड़ने का फैसला कर लिया है...पर क्यों...नहीं सर मुझे लगता है कि मैं आगे नहीं बढ़ पाउंगी...जिस सोच को लेकर मैने इस फील्ड में क़दम रखा था...वो शायद कभी पूरी नहीं हो पाऐगी...आप चाहे जितना भी अच्छा काम कर लो...लोग आपको जीने नहीं देंगें...और रही सही कसर पूरी कर देते हैं वो लोग जो दिन भर सीनियरों के तलवे चाटकर अपनी नौकरी बचाने में लगे रहते हैं...
     मैं हैरान उसे देखता रह गया...जो लड़की जर्नलिज्म के लिए मरने-मिटने को तैयार रहती थी वो ऐसा फैसला क्यों ले रही है...क्या ये मेरे लिए संकेत तो नहीं...क्योंकि मुझे भी अंदर से ये इसकी कड़वी सच्चाई और नंगेपन के बारे में मालुम था मग़र...आख़िर इन सात सालों में क्या हासिल कर पाया मैं...क्या मैं भी सीनियरों के तलवे चाटूं या फिर गंदी पालिटिक्स शुरु कर दूं...मग़र ये तो मेरी फ़ितरत मैं नहीं...अंदर से सहम गया मैं...सर एक बात और है इस फील्ड में... आप चौबिसों घंटे तनाव में जीते हैं...क्या फ़ायदा ऐसी नौकरी का...कभी छुट्टी लेने का मन हो तो नहीं मिलती...संडे को जब दुनिया आराम और इंज्वाय करती है तो हमें उस दिन भी काम करना होता है...मैं तो ठान चुकी हूं सर...बहुत हो गया...उब चुकी हूं मैं...क्या सोचकर आई थी मैं...पर...उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे...
    




Wednesday, July 13, 2011

अपना वजूद पहचाने मुसलमान...



यूं तो मुल्क में मुसलमानों की तादात तक़रीबन 20 फीसद से भी ज़्यादा है।और आज़ाद मुल्क में ये तादात काफ़ी मायने रखती है,मग़र आज भी मुल्क का ज़्यादातर मुस्लिम तबक़ा पसमांदगी की ज़िदगी जीने को मजबूर है।रोज़ग़ार से लेकर तालीम में मुसलमानों की पसमांदगी साफ़ नज़र आती है।चुनाव के दौरान हर पार्टी मुसलमानों की रहनुमा बनने का नाटक करती है मग़र उसके बाद हालात बदल जाते हैं।आज तक कोई भी मुस्लिम पार्टी अपना वजूद क़ायम रखने में नाकाम रही है।जिसकी वजह से मुसलमान हाशिए की ज़िदगी जी रहा है।उनके नाम पर सियासत करने वाले उनकी किसी भी परेशानी का हल निकाल पाने में कामयाब नहीं हो पाते,जिसके मद्देनज़र मुसलमान हुकूमत तक अपनी आवाज़ बुलंद नहीं कर पाते।
     तारीख़ गवाह है कि आज़ादी से पहले मुसलमानों की हालत हिंदुस्तान में काफ़ी बेहतर थी मग़र आज़ादी के बाद हालात इतनी तेज़ी से बदले कि मुल्क का आम मुसलमान पिछड़ेपन की आंधी में बहता चला गया,और ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहा जो आज भी क़ायम है।अगर गौर किया जाऐ तो कई जगह मुसलमानों की हालत दलितों से भी बद्तर है मग़र उनकी तरफ़ किसी का भी ध्यान नहीं है,उनके पास न तो कोई कारोबार है और न ही उन्हे सरकारी सहुलियात मिल पा रही है। वो तो बस सरकार की नज़रों में वोट बैंक बने हुए हैं,जिनका इस्तेमाल चुनाव के वक्त किया जाता है। हालात ये हैं कि मुसलमान फुटबाल की मानिंद हो चुके हैं,जो चाहे उसे इस्तेमाल कर सकता है और बड़ी ही आसानी से गोल दागकर जीत हासिल कर सकता है।
    मैं समझता हूं कि मुसलमानों के पिछड़ेपन में अगर किसी का क़सूर है तो वो सबसे ज़्यादा ख़ुद मुसलमानों का है,उन्होने कभी भी ख़ुद को बदलना ही नहीं चाहा,वो अपने घिसे-पिटे फार्मुले पर ही ज़िंदगी जी रहे हैं,उन्होने कभी भी तरक्कीयाफ़्ता क़ौम में तब्दील होना ही नहीं चाहा। सिर्फ़ सरकार को कोसने से कुछ हासिल नहीं,जब वो अच्छी तरह से जानते हैं कि सभी पार्टियां उनको इस्तेमाल करती हैं तो क्यों नहीं वे उनकी चाल समझ पाते।इसकी सबसे बड़ी वजह मुसलमानों का आपस में इत्तहाद(एकता) न होना भी है,मुसलमान आज कई फ़िरकों में बंटे हुए हैं जबकि इस्लाम के मुताबिक़ कलमा पढ़ने वाला हर इंसान मुसलमान है,उसकी न तो कोई जाति है और न ही कोई फ़िरका मगर मुसलमान न तो शरियत के मुताबिक़ चल रहा है और न ही जदीदी(आधुनिकता) के मुताबिक़,तो ऐसे में मुसलमान आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ेगा नहीं तो क्या होगा।जितने भी मुस्लिम लीडर हैं वो कभी भी नहीं चाहेंगें कि मुसलमान तरक्कीयाफ़्ता क़ौम में तब्दील हो जाऐं अगर ऐसा हो गया तो उनकी दुकान चौपट हो जाऐगी,लेकिन सवाल ये पैदा होता है कि हाशिए कि ज़िदगी जी रहे मुसलमान किसे अपना रहनुमा चुने,क्योंकि मुस्लिम पार्टियों का हश्र ढाक के तीन पात वाला रहा है,वो खुद ही अपने आपको नहीं संभाल सके तो 22 करोड़ से ज़्यादा मुसलमानों को क्या संभालेंगे।
     आज़ादी के इतने सालों बाद भी सरकार का रवैया मुसलमानों के प्रति बेरुख़ी वाला ही रहा है।पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर कई राज्य ऐसे हैं जहां सरकार बनाने में मुसलमानों की निर्णायक भूमिका रही है।लेकिन उनका कोई पुरसाने हाल नहीं है,लॉलीपॉप के तौर पर किसी मुसलमान विधायक या एमपी को मंत्री बना देने से समस्या का हल होने वाला नहीं है।केंद्रीय सरकार हो या राज्य सरकार सबने हमेशा ही मुसलमानों से छल किया है,पर अफ़सोस कि मुसलमान लाचार और बेबस होकर तमाशा देखने को मजबूर है।
     ऐसा नहीं है कि मुसलमान अपने हालात से वाकिफ़ नहीं है,बस वो हिम्मत नहीं कर पाता है और रही सही कसर उसके अपने लीडरान निकाल देते हैं।वो कभी भी खुलकर मुसलमानों के हक़ के लिए आवाज़ बुलंद नहीं कर पाते,उनकी आवाज़ इतनी धीमी होती है कि वो सरकार के कानों तक पंहुच ही नहीं पाती।कोई शक नहीं कि अगर मुसलमान अपने हक़ के लिए सड़कों पर उतर गया तो सरकार को न सिर्फ़ मुसलमानों की मांगों को मानना होगा बल्कि सालों से अपने हक़ से महरुम मुसलमान को उनका वाजिब हक़ देना ही होगा,बस ज़रुरत इस बात की है कि मुसलमान आपस में इत्तेहाद(एकता) क़ायम कर अपने वजूद को पहचानें।

Monday, July 11, 2011

अमीर-ग़रीब...

अमीरों के मियां दुश्मन भी ज़रा कम ही होते हैं,
ग़रीबों के तो हर दुश्मन वक्त-बे-वक्त होते हैं।
अमीरों की तो हर मुश्किल आसां सी होती है,
ग़रीबों की हर मुश्किल परेशां सी होती है।
अमीरों का बड़ा दुश्मन खुद अमीरी है,
ग़रीबों का बड़ा दुश्मन ख़ुद ग़रीबी है।
अमीरों के ज़रा शौक कुछ बड़े से होते हैं,
ग़रीबों के तो शौक कुछ अलग से होते हैं।
वो जीते हैं अमीरी में,वो जीते हैं ग़रीबी में
परेशां वो भी होते हैं,परेशां ये भी होते हैं।
अमीरों की परेशानी का हल तो हो भी जाता है,
ग़रीबों की परेशानी का कोई हल नहीं मिलता।
अमीरों के सीने में ज़रा सा दिल धड़कता है,
ग़रीबों के सीने में बड़ा सा दिल धड़कता है।
वो जीते हैं अकेले में,वो जीते हैं अंधेरे में,
वो चीज़ों को चख़ते हैं,उन्हे चीज़ें मयस्सर नहीं।
वो सोते हैं महलों में,वो सोते हैं सड़कों पे,
वो नींद से हैं कोसों दूर,वो भरपूर सोते हैं।
उनके काम हैं आसां,उनके कुछ अलग से हैं,
वो मरने से डरते हैं,वो रोज़ाना ही मरते हैं।

Saturday, July 9, 2011

एहसास...


अजीब कशमकश में हूं साहब
बड़ी उलझन मैं जी रहा हूं मैं
चार टुकड़े हो गए हैं बेक़सूर जिस्म के
एक दिल,एक वो,एक हम, एक तुम
क्या हुआ एहसास को मर गया है शायद
फ़िर मुकद्दर ले के आया उसी मंज़र पर
खो गई हैं बिजलियां सी वो कहीं गुमशुदा
ढुढंना मुमकिन नहीं है कैसे ढूंढे हम उन्हे
एक शाम,एक रात,एक सुबह,एक शब
क्या हुआ एहसास को मर गया है शायद
अजीब कशमकश में हूं साहब
बड़ी उलझन मैं जी रहा हूं मैं

Friday, July 8, 2011

तस्वीर...


मेरे क़रीब से वो बिछड़ा कुछ इस तरह
पानी से जैसे दाग़ धुलता हो जिस तरह
कितनी मसर्रत थी मुझे उसके क़रीब से
वो आंधियों में मिलता था फानुस की तरह
मेरी तो ज़िदगी है एक खुली किताब सी
उसकी भी ज़िदगी में खुला अहसास था
वो वादियों में मिलके तबस्सुम सा लापता
मैं हैरां था कि दिल में कोई रंज़ो-ग़म न था
ऐ काश कोई उन तक मेरा ये पैग़ाम दे
जो हो सके तो लौटके ये पयाम दे
ग़र हो क़याम चार दिन इस ज़िदगी में भी
तस्वीर बदल जाऐगी इस मयक़दे की भी



Saturday, July 2, 2011

तस्वीर...


कुछ दिनों क़ब्ल ही मेरा अफ़रोज़ से तलाक हुआ था...वो ज़िंदगी को अपने ढंग से जीना चाहती थी और मैं अपने ढंग से...हालांकि कालेज की दोस्ती कब प्यार में तब्दील हो गई थी ये मुझे मालूम ही नहीं चला था...अफ़रोज़ की खूबसूरती पूरे कालेज में मशहूर थी...मैं उन दिनों रिसर्च के सिलसिले में कालेज में नया-नया आया था...उन्ही दिनों कैंटीन में कॉमन फ्रेंड के ज़रिए मेरी उससे मुलाकात हुई...उसकी आंखों में कुछ अलग सी कशिश थी जो मुझे उसकी और खींच ले गई...रिसर्च पूरी होने के बाद मैने नौकरी ज्वाइन कर ली...अब वक्त था कि मैं अफ़रोज़ से शादी के बारे में खुलकर बात कर सकूं...मैं उस वक्त हैरान रह गया जब मैंने कॉफी केफै़ हाउस में उसे शादी के लिए प्रपोज़ किया और वो फौरन मान गई...उसके वालिद ने भी फौरन हमारी शादी के लिए रज़ामंदी दे दी...पर अफ़सोस हमारी ये शादी ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी....इसकी क्या वुजूहात रहीं मैं खुद आज तक नहीं समझ पाया...जो लड़की मेरे बिना एक पल भी नहीं रह सकती थी वो मुझसे इतनी ख़फ़ा हो गई मैं खुद भी समझ नहीं पाया....छोटी-छोटी बातों को लेकर वो अक्सर झगड़ती,छोटी सी बात का तिल का ताड़ बना देती...मुझ पर शक करती...रात को देर से आने पर मुझसे हजारों सवालात करती मैं उसकी इन बातों से आजिज़ आ चुका था....बेहतर तो ये था कि मैं कुछ रोज़ के लिए उसे अकेला छोड़ देता ताकि मैं उसे समझने का मौका दे देता....आख़िर ऐसा करके भी कोई नताइज़ हासिल नहीं हुआ...वो और ज़्यादा आग-बबूला हो गई...मैं अम्मी के पास कुछ दिन की छुट्टी लेकर क्या गया उसने हंगामा बरपा कर दिया....मेरी अम्मी खुद इस बात से परेशान हो गई...हद तो ये हो गई कि वो बिना बताए वहीं आ गई और अम्मी पर फ़िकरे कसने शुरु कर दिए....इसी गुस्से में मैने एक जोर का तमाचा उसके मुंह पर जड़ दिया...आखिर एक हद होती है...वो फौरन वहां से पांव पटकती हुई चली गई...अम्मी ने काफ़ी समझाने की कोशिश की पर उसके सर पर तो जैसे भूत सवार था...उसने किसी की नहीं सुनी...
      मेरे घर में कदम रखते ही वो मुझ पर बरस पड़ी...मैं ठान चुका था कि अब पानी सर से उपर हो चुका है....उसने मुझसे तलाक का मुतालबा किया...मेरे पांव के नीचे से ज़मीन खिसक गई....मैं पूरी रात सो नहीं पाया....आख़िर माज़रा क्या है मैं समझ नहीं सका...वो क्यों मुझसे इतनी बेरुख़ी से पेश आती थी..मैं जान नहीं पाया...दोनों की ज़िंदगी में अब कुछ भी बाकी नहीं रह गया था...तलाक लेना ही मुनासिब था...अदालत ने हमारी तलाक पर अपनी मुहर लगा दी....दोनों ने अपना अपना रास्ता अख़्तियार कर लिया...कुछ दिन अम्मी मेरे साथ रही तो अकेले रहने का अहसास नही रहा मग़र अम्मी के जाते ही घर काटने को दौड़ता...नौकरी कर के किसी तरह पूरा दिन को कट जाता मगर रात का क्या करुं....कैसे कटेगी...यही सोचकर दिल घबरा उठता था...
       अचानक मेरा तबादला हो गया....थोड़ी राहत मिली...नई जगह नए लोग...अफ़रोज़ को भूलना इतना आसान नहीं था...रह-रहकर मुझे उसकी बातें याद आती थीं...मैं खुश था कि नए शहर मैं नई ज़िदगी को अपने ढंग से जी सकुंगा...हर इतवार अपनी आपा के पास चला जाता उसके बच्चों के साथ मेरा दिल बहल जाता था....आपा मेरे लिए गुपचुप तरीके से लड़की की खोजबीन कर रही थी...इसका इल्म हो गया था मुझे....आपा देखो अब में शादी नहीं करुंगा...क्यों नहीं करोगे क्या सारी उम्र ऐसे ही....हां आपा...ऐसे ही....क्या सिला मिला मुझे शादी करके...एक पल भी अफ़रोज़ ने नहीं सोचा कि तलाक के बाद मुझ पर क्या गुज़रेगी...देखो...नहीं आपा...मैने कह दिया न...कहकर मैं अपने घर चला आया....
     ये आपके अंडर में काम करेंगी....इनकी पूरी रिपोर्ट हर महीने पेश करेंगे आप...और यकीनन बेहतर काम निकलवा सकेंगें इनसे...जी बेहतर...बैठिए...क्या नाम है तुम्हारा...जी सायमा...देखो अपने काम पर ज़्यादा ध्यान देना...मुझे कोई भी शिकायत नहीं मिलनी चाहिए...ठीक है...जी...जाओ अब काम करो...
     सर..आप मुझे ऐसे क्यों घूर रहे हो...क्या मतलब....सर मैं....बदतमीज़...तुम्हे घूर कर क्या करुंगा मैं...चली जाओ अपने केबिन में...आइंदा इस तरीके की बात की तो खैर नहीं...अरे मैने अचानक तुम्हे देख लिया तो क्या हर्ज़ है...इसे तुम घूरना कहती हो....सारी सर...सारी की बच्ची...न जाने क्यों...सायमा ने मुझे अफ़रोज़ की याद दिला दी...एक बार उसने भी कैंटीन में मुझसे कहा था....तुम मुझे घूर क्यों रहे हो....क्या मेरी नज़र ही ऐसी है...शाम को आइने में गौर से अपना चेहरा और अपनी आंखें देख रहा था मैं....घंटों आइने के आगे खड़ा रहा...फोन की घंटी बजने पर ही मेरी नज़र आईने से हटी....ये क्या हो रहा है मुझे...कहीं मैं...नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता...डाक्टर साहब मेरी आंखे चेक करें...लोग मुझे अक्सर कहते हैं कि मैं उन्हे घूरता हूं....ये आपका वहम है...और कुछ नहीं...जब भी कोई आपसे मज़ाक मैं कुछ कहता है तो आप उसे संजीदा तौर से ले लेते हैं....ऐसा न करें...जी..शुक्रिया....
      सर आप फिर से मुझे घुर रहे हैं....मैं हैरान था...मैं तुम्हे क्यों घूरुंगा भला...मुझे तुममे कोई दिलचस्पी है ही नहीं...सर मैं तो मज़ाक कर रही थी...आपसे कल भी मज़ाक किया तो आप बुरा मान गए....नहीं ऐसी कोई बात नहीं....और फ़िर एक दिन...अरे सायमा कहां है....सर पता नहीं...कहां रहती है वो...मालुम नहीं...कहां...पगली तुम्हे इतनी तेज़ बुख़ार है और तुमने बताया तक नहीं...आपा कुछ दिनों के लिए सायमा यहीं रहेगी जब तक इसकी तबियत ठीक नहीं हो जाती....लेकिन इसके खानदानवालों को तो फोन कर दो....आपा वो सहारनपुर में रहते हैं...एक-दो दिन लगेगें आने में...ठीक है....मैं आफ़िस निकलता हूं शाम को आउंगा....कैसी है अब सायमा थोड़ी बेहतर है पहले से सर....
       और फ़िर शाम को...कैसे बिमार हुईं तुम....आपा ने पूछा...इनके घुरने से...मुझे आग लग गई....कहीं ये पागल तो नहीं....तू तो कह रहा था कि अब मुझे लड़कियों में कोई दिलचस्पी नहीं है...तो फ़िर ये क्या है...आपा पागल है ये...जब देखो यही सवाल करती रहती है....और फ़िर बाद में माफ़ी भी मांग लेती है....मुझे नहीं मालुम इसे ये बिमारी कब से है...चलो खैर खाना खा लो....एक भी निवाला मेरे मुंह में नहीं जा रहा था...गुस्से के मारे...अजीब पागल लड़की है..कहीं भी कुछ भी बोल देती है....तभी उसके अहलेखाना भी आ पंहुचे....आपने हमारी बेटी का ख़्याल रखा इसका आपका बहुत-बहुत शुक्रिया....हम लफ़्ज़ों में बयां नहीं कर सकते कि इस अंजान शहर मैं भी कोई किसी का हो सकता है....
       आइंदा अगर तुमने घूरने वाली बात किसी के सामने कही तो समझ लेना..अरे मैं तुम्हे क्यों घुरूंगा भला...तुम शायद नहीं जानती कि मेरा तलाक हो चुका...कितना दर्द सहा है मैने अपनी गुजिश्ता ज़िदगी में...अपनी सारी हक़ीकत शुरु से आख़िर तक उसके सामने बयां कर डाली मैने...कब वक्त बीत गया पता ही न चला...सर मुझे माफ़ कर दो....मैंने आपका दिल दुखाया है....आप इतने नेक इंसान हैं ये मुझे उस दिन मालुम हो गया था जब आप डाक्टर को लेकर मेरे घर आऐ थे....आप का मेरा तो कोई रिश्ता भी नहीं है....और आप और मैं तो ज़्यादा घुले-मिले भी नहीं फ़िर भी आपने बिना ये सब जाने मेरी सेहत का कितना ख़्याल रखा मैं ताउम्र नहीं भूल सकुंगी ये सब....
      आप कल ही ज्वाइन कर लें तो बेहतर होगा....जी सर मैं रात को ही देहली निकल जाउंगा रात को नहीं शाम तक निकल जाओ...ठीक है...सर...ठीक है आपा अपना ख़्याल रखना....आता-जाता रहूंगा....कैसी नौकरी है तुम्हारी हर छह महीने में तबादला हो जाता है....और सायमा का क्या....क्या मतलब सायमा का क्या...अरे मुझे उससे क्या लेना...वो अपनी ज़िदगी में खुश है...और मैं खुश रहने की कोशिश कर रहा हूं....अब फिर से तुम्हे देहली मैं अफ़रोज़ की याद नहीं आऐगी...आपा वो मेरा माज़ी बन गई है....मुझे अपना मुस्तक़बिल देखना है...चलता हूं....एक मिनट ठहरो...वो देखो तुम्हारा मुस्तक़बिल सामने खड़ा है....अचानक नज़र गई तो सामने सायमा खड़ी थी...आपा पागल हो क्या मुझे ये मज़ाक पसंद नहीं....जाते-जाते मेरा मूड ऑफ मत करो....मेरे इतना कहते ही सायमा मुझसे लिपट गई....मुझे छोड़कर मत जाइऐ सर....मैं आपसे बिना मर जाउंगी...जी नहीं पाउंगी आपके बगैर...आप जैसा भी कहेंगें मैं वैसा ही करुंगी...अरे छोड़ो मुझे ये क्या पागलपन है...मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता...क्यों...आख़िर क्या कमी है मुझमें..कोई कमी नहीं है पर अब मैं अपनी ज़िदगी अकेले ही जीना चाहता हूं....अकेले...अकेले ज़िदगी जी लोगे तुम...अभी तो जवान हो....बुढ़ापे का क्या...और कब एक पंख से पक्षी उड़ा है आसमान में...कब तक आख़िर कब तक.... किसी एक के जाने से ज़िदगी तो नहीं रुक जाती.... सायमा के चेहरे पर नज़र जाते ही मेरा गुस्सा काफ़ूर हो गया....मैं कितना ग़लत था आपा...कमी मुझमें भी तो होगी जो अफ़रोज़ ने मुझे छोड़ा पर शायद सायमा तुम्हे ताउम्र न छोड़ पाऐ...आपा ने ठंडी आह भरते हुए कहा...क्योंकि इसकी आंखों में सच्ची मुहब्बत नज़र आयी है मुझे....अब जाओ और जल्द ही वापस आना....तुम्हे एक से दो करना है....जी ज़रुर....मैं मुसकुराकर एयरपोर्ट के लिए निकल पड़ा....
            

Thursday, June 30, 2011

अक्स.....


1..वो अक्सर यूं अंधेरे में चुपचाप जीते हैं,
के गोया मर्ज़ हो उनको निस्बते-मुहब्बत का....
वो आधी रात को उठके यूं रोते हैं अकेले में,
के गोया दर्द हो उनको ज़माने से उम्रभर का...

2..ये इश्क न होता जो कभी यार न होता....
न प्यार ही होता न ऐतबार ही होता....
उसे न आंसूओं की समझ न रंज किसी का..
मुद्दत गुज़ार लेने से कोई अपना नहीं होता...


3..ज़िंदगी के कुछ लम्हे यूं ही गुज़र गए,
फ़िर से तेरी याद में आंसू निकल गए....
तन्हाईयों को वफ़ा की उम्मीद थी मग़र,
जो ज़ख्म थे हरे वो फ़िर से भर गए


4..ज़रा सोच लिजिए एक बार फ़िर से,
क्यों हो इतने परेशां तुम अपने दिल से....
वो तो ख़ुशबू है उसे हवा में घुलना था...
.क्यों तुम बेदार हो अपने घर से......
उसको अब तक मयस्सर नहीं तेरा साया...
वो तो जी लेता है तेरी याद को याद करके....


5..गुजिश्ता कुछ दिनों से वो नहीं सो पाऐ सारी रात,
उन्हे महसूस होता यूं के कोई आया है उसके पास...
उसकी आंखों में जो तस्वीर कुछ धुंधली सी दिखती है....
यही वजह है कि है वो उसकी परेशानी का बाइस है.....


6..दिल से जो जुड़ा उस दिन वो शख़्स है कहां,
नज़रे जो चुरा रहा है वो अक्स है कहां.....
ये सारी उल्फ़तें तो मुकद्दर की बात है,
अंजाना ही सही पर वो खोया है अब कहां....
तस्वीरों में तो शायद मिल जाऐगा कहीं,
पर मेरे अल्फ़ाजों में आवाज़ है कहां.....


7..तुम क्या जानो इस दिल में हैं दर्द छिपे कितने,
तन्हाई में आख़िर देखो मर्ज़ छिपे कितने.....
अंधियारों में जीते हो तुम आफ़ताब की बातें करते हो,
सच्चाई तो ये है कि तुम ख़ुद से बेहद डरते हो......

Monday, June 27, 2011

बदलता दौर और अख़बारी क्लैवर.....


इलैक्ट्रोनिक मीडिया के विस्तार,जल्दी ख़बरें पेश करने और दृश्यों की प्रधानता ने अख़बारों को सोचने पर मजबूर कर दिया। न्यूज़ चैनलों के मार्केट में आने से न सिर्फ़ अख़बार के पाठकों की संख्या में कमी आई बल्कि पाठकों ने उन अख़बारों को तरजीह देना शुरु कर दिया जो अपने आप में संपूर्णता परोसते हैं।उन्हे ख़बरों में भी मनोरंजन नज़र आने लगा। ऐसे में अख़बारों के सामने नई चुनौती पेश आ गई,कुछ बड़े ब्रांड ने हाथोंहाथ अपने कंटेंट में परिवर्तन कर लिया और कुछ ने मार्केट में रिसर्च कर ये पता लगाने की कोशिश की कि आख़िर सुधी पाठक इस कंपटिशन के दौर में कैसी ख़बरें पढ़ना पसंद करते हैं।ज्यादातर अख़बारों ने न सिर्फ़ अपना क्लैवर बदला बल्कि अपनी ख़बर को पेश करने का अंदाज़ भी बदल डाला,आख़िर मार्केट में जो टिके रहना था। कुछ अख़बारों ने अपनी भाषा में आम बोलचाल यानि हिंग्लिश को तरजीह दी तो किसी ने अपनी भाषा को हिंदी के साथ-साथ दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनाने से भी गुरेज़ नहीं किया।
      न्यूज़ चैनल के तेज़ ख़बर पेश करने के दबाव में अख़बार ने भी ख़बरों में तेजी लाना शुरु कर दिया,व्यूज़ की जगह न्यूज़ को ज़्यादा तरजीह दी गई ताकि लोगों को अख़बार किसी भी सूरत में बासी न लगे। हालांकि आज भी हिंदुस्तान में आम लोगों के पास न्यूज़ पंहुचाने का सबसे सस्ता और सरल माध्यम अख़बार ही हैं। दो से चार रुपए की क़ीमत में आपको न सिर्फ़ देश-दुनिया की ख़बरें बल्कि साहित्य और कैरियर से जुड़ी जानकारियां भी प्राप्त होने लगीं,ये सब न्यूज़ चैनलों से हो रही प्रतिस्पर्धा के कारण ही संभव हुआ।
      एक वक्त था जब प्रिंट को विश्वसनिय माना जाता था क्योंकि प्रिंट ख़बरों का विश्लेषण करता था कोई भी ख़बर हो अख़बार उसे छापने से पहले उसकी पूरी जांच-परख़ करता था परंतु आज के दौर में ये संभव ही नहीं है,अब न तो अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों में ख़बरों की समीक्षा की क्षमता है औऱ न ही वो ख़बरों को सामाजिक पहलू में आंकते हैं उनके लिए ख़बर एक मात्र वस्तु बन गई है।जिसे वो बढ़िया पैकिंग में लपेटकर अपने पाठकों को परोस देते हैं बिना ये जाने कि इसका उनकी मानसिकता पर कोई असर पड़ने वाला है। आज अख़बारों से शब्दों की दोस्ती भी तकरीबन ख़त्म सी हो गई है,एक दौर था जब अख़बारों में ठेठ हिंदुस्तानी शब्द और मुहावरे पेश किए जाते थे ऐसे शब्द जो न सिर्फ़ अनपढ़ बल्कि सूदूर गांव में चौपाल पर चारपाई लगाऐ अख़बार पढ़ते हमारे बुजुर्गों की समझ में ख़बर पढ़ते हा आ जाते थे। मगर आज की भागमभाग वाली जीवनशैली में हम एक से दो मिनट में अख़बार पढ़ डालते हैं। क्योंकि अख़बार में ऐसा कुछ होता ही नहीं है जिस पर हमारी नज़र टिक सके।
      आज किसी भी अख़बार का ध्यान से विश्लेषण किजिए आपको सच्चाई नज़र आ जाऐगी,कोई भी अख़बार ऐसा नहीं है जो अपने पाठकों के हितों का ख़्याल रखता हो,उस पर अख़बार के मालिकों का तुर्रा ये कि मार्केट में टिके रहने के लिए अख़बार को ब्रांड बनाकर पेस नहीं करेंगे तो मार्केट में टिके रहने मुश्किल है, अख़बार बंद हो गया तो,बिल्कुल सही बात है मार्केट का तो आपको ख़्याल है मगर उस पाठक का आपको ज़रा भी ख़्याल नहीं जो सच्ची और मनोरंजक ख़बरों के लिए आप पर निर्भर है।आप उसे सुबह-सुबह चाय के प्याले के साथ पहले पन्ने पर क्या पेश कर रहे हैं,अपराध और रेप से जुड़ी ख़बरें या फ़िर लूट खसौट वाली ख़बरें जिससे कि उसका मन पहले ही खिन्न हो चुका है।
     न्यूज़ चैनलों की देखादेखी अख़बारों ने भी अपनी ख़बरों के क्लैवर में बदलाव कर दिया,अख़बारों को रंगीन बना दिया गया उसके पहले पन्ने को अपनी साख दिखाने के लिए विज्ञापन से पाट दिया गया ताकि लोगों को लगने लगे कि मार्केट में इस अख़बार की काफ़ी अच्छी रेपो है और ये जो ख़बरें पेश करता है वो विश्वसनिय हैं।सिर्फ़ विज्ञापन के दम पर अपने पाठकों को बेवकूफ़ बनाना कहां कि समझदारी है।      

Sunday, June 12, 2011

ख़बरों को तमाशा बनाने का खेल...


पिछले दिनों दो तीन ऐसी घटनाऐं एक के बाद एक घटी कि मेरा दिल कुछ तल्ख़ लिखने को मजबूर हो गया।एक और जहां बाबा रामदेव और उनके समर्थकों को बर्बरतापूर्वक दिल्ली के रामलीला मैदान से खदेड़ दिया गया तो दूसरी और कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्दन द्धिवेदी को एक पत्रकार ने जूता दिखा दिया तो वहीं मुंबई में सरेआम एक पत्रकार को गोलियों से भून दिया गया। इन तीन घटनाओं ने मुझे मेरे पेशे के प्रति संजीदगी से सोचने को मजबूर कर दिया,मुझे पहली बार लगा कि पत्रकार चाहे कितना भी प्रोफेशनल हो एक न एक बार तो अपने पेशे के प्रति वफ़ादार होता ही है।सबसे पहले बाबा रामदेव की ख़बर पर आते हैं,बाबा रामदेव ने देश का 4सौ करोड़ रुपए का काला धन का मामला उठाकर जैसे गुनाह कर डाला। सरकार बाबा रामदेव के पीछे हाथ धो कर पड़ गई,उनकी संपति से लेकर उनके इतिहास तक के बारे में पता लगाने की कोशिश करने लगी।इससे नाराज़ बाबा ने दिल्ली की बजाए हरिद्धार से ही अपना अनशन शुरु कर दिया,गर्मी के मौसम में बाबा की तबियत ख़राब हो गई और बाबा को जबरन देहरादून के हिमालयन अस्पताल में भर्ती कराया गया। साधु-संतों की काफ़ी मान-मुनोव्वल के बाद बाबा ने अपना अनशन तोड़ा।लेकिन जिस तरीके से मीडिया ने बाबा की ख़बरों को दिखाया और छापा उसने पत्रकारिता के पेशे पर सवालिया निशान लगा दिए,जिस बाबा को मीडिया ने इतना हाइप कर दिया था उसी बाबा को टीआरपी के फेर में मीडिया ने इतना नीचे गिरा दिया कि खुद बाबा को भी अहसास नहीं हुआ।ज़्यादातर टीवी चैनल बाबा को स्त्रीवेश में मैदान से बाहर निकल जाने को ऐसे दिखा रहे थे जैसे कि बाबा ने कोई संगीन जुर्म किया हो,इससे उन लोगों में जो बाबा को सम्मान की नज़र से देखते थे उन्हे धक्का लगा। उन्हे लगा कि ये बाबा भी दूसरे बाबाओं की तरह से ढोंगी है। जो पुलिस की कार्रवाई से बचने के लिए स्त्रीवेशभूषा में मैदान छोड़कर भाग निकला। रात के दो बजे अगर पुलिसवाले अपनी नौकरी की ख़ातिर बाबा के हाथ-पैर तोड़ देते तो क्या होता। क्या मीडिया की ज़िम्मेदारी नहीं बनती थी कि वो इस तरह की ख़बरों को दिखाने से परहेज करता मीडिया को किसी की भी छवि पर धब्बा लगाने की कोशिश करने का हक़ किसने दिया।क्यों मीडिया ने रामलीला मैदान पर अपने अपने द बेस्ट रिपोर्टरों को लगाया, जाने देते...अगर मीडिया इतना हाइप न करता तो बाबा को गरियाने वाले नेता उनके कदमों में बैठे होते। लेकिन मीडिया ने उनकी इज्जत को तार-तार करने में कोई कसर न छोड़ी,टीवी पर चीख-चीख कर बताया जा रहा था कि देखिए ऐसे भागे बाबा हम दिखा रहे हैं सबसे पहले आपको एक्सक्लूजिव लेकिन ये पब्लिक है सब जानती है, मीडिया का नंगा सच सबके सामने है। बाबा को आज भी उतनी इज्जत हासिल है जितनी कि पहले थी,आख़िर संविधान ने आवाज़ उठाने का हक़ सबको दिया है और मीडिया जतनी जल्दी समझ जाऐ उसकी सेहत के लिए अच्छा है।
      इसी बीच दूसरी ख़बर आई कि कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्द्धन द्धिवेदी की प्रेस कांफ्रेस में एक नामालुम पत्रकार ने उन्हे जूता दिखा दिया,जिस पर उसकी जमकर पिटाई कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया,अगले दिन टीवी चैनलों ने दिखाया कि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी उस पत्रकार को लात मारी,बस क्या था टीवी चैनलों को टीआरपी बढ़ाने का फार्मूला मिल गया,कोई ऐनिमेशन से लोगों को समझा रहा था तो कोई अपने सहयोगी के कंधे पर हाथ रख उचक-उचक कर बता रहा था कि ऐसे लात मारी दिग्विजय सिंह ने। आख़िर ये सब है क्या.. इसमें कोई सच्चाई नज़र नहीं आई इससे बेहतर तो ये था कि उस पत्रकार से पूछा जाता कि आख़िर उसने ये क़दम क्यों उठाया। लेकिन इससे उलट मीडिया ने ख़बर को चटपटा बनाने के लिए मसालों का भरपूर प्रयोग किया।
      बाबा रामदेव के अनशन के बीच एक दिल दहला देने वाली ख़बर आई कि मुंबई में मिड डे से जुड़े क्राइम पत्रकार और अंडरवर्ल्ड पर दो बेहतरीन किताबें लिखने वाले ज्योतिर्मय डे को कुछ लोगों ने गोलियों से भून डाला। हैरानी की बात ये है कि अपने साथी की मौत पर किसी को कोई रंज नहीं किसी भी टीवी चैनल ने इस पत्रकार की मौत पर आधे घंटे का प्रोग्राम नहीं बनाया,जबकि वो पत्रकार ख़बर जुटाने की बजाए खुद ख़बर बन गया। ऐसा क्यों है अगर राखी सावंत को कोई सिरफ़िरा छेड़ दे तो आधे घंटे का प्रोग्राम हर टीवी चैनल पर तय मानिए, मगर अगर कोई पत्रकार पिटता है या मारा जाता तो उसके लिए इनके दिलों तो छोड़िए इनके टीवी चैनलों के प्राइम टाइम में कोई जगह नहीं है। किसी भी टीवी चैनल नें ज्योतिर्मय के परिवार का इंटरव्यू नहीं लिया सरकार पर तो दबाव डालना दूर की बात है। इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि पत्रकारिता में खुदगर्जी कितनी हावी हो चुकी है,कहा जाए तो संवेदना मर चुकी है इन्हे चाहिए तो बस टीआरपी,और इसके चक्कर में ये खुद कब तमाशा बन जाऐं इन्हे इसकी परवाह नहीं।   
       

Friday, June 10, 2011

कल करे सो आज कर....


जल,जंगल और ज़मीन इन तीन चीज़ों से मिलकर बनी है ये दुनिया। मगर आज ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में कहीं न कहीं इस दुनिया के अस्तित्व पर ही ख़तरा मंडरा रहा है,आधुनिकता की अंधी दौड़ में हर इंसान भागा जा रहा है। आज इंसान अपने फ़ायदे के लिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने से भी नहीं चूक रहा है। पूरी दुनिया में हर वक्त न जाने कितने भूकंप,सूनामी,बाढ़ और विपदाऐं आती रहती हैं मगर मनुष्य लालच के फेर में इन सब चीज़ों से मुंह फेर लेता है,भले ही उसे इसका परिणाम भुगतना पड़ जाऐ उसे इसका ग़म नहीं। पिछले दिनों जापान में आई भयानक सूनामी से लाखों लोग मारे गऐ और करोड़ों रुपए की संपति का नुकसान हुआ,लेकिन फ़िर भी मनुष्य प्रकृति के साथ छेड़छाड़ से बाज़ नहीं आ रहा है। आज दुनिया के ज्यादातर इलाकों में घने जंगल मिटते जा रहे हैं इनकी जगह कंक्रीट के जंगलों ने ले ली है,इन जंगलों में आलिशान बंगले,इमारत और माल्स बनाए जा रहे हैं। जंगलों में रहने वाले जानवरों की तादात में भी कमी आ गई है क्योंकि जंगलों के सिकुड़ने की वजह से जानवरों का जीवन संकटग्रस्त हो गया है,फलस्वरुप ज्यादातर जानवर सिर्फ़ किताबों में ही नज़र आने लगे हैं।
       ऐसा नहीं है कि मनुष्य इसके बारे में न जानता हो,हर साल पर्यावरण के नाम पर विश्व की कई सरकारें पर्यावरण और ग्लोबलाइजेशन को लेकर आपस में गहन चर्चा करती हैं,मगर कोई भी ठोस निर्णय नहीं ले पाती हैं। आज धीरे-धीरे पानी की कमी हो रही है इसकी वजह से हिंदुस्तान जैसे विकासशील देश में कई ईलाकों में पानी तक मयस्सर नहीं हो पा रहा है,जिससे न सिर्फ़ वहां रहने वाली आबादी बल्कि जंगली जानवर को पीने का पानी नहीं मिल पा रहा है। कई ईलाकों में नदियां, नाले, पोखर लगभग सूख चुके हैं और उनके फ़िर से भरने की उम्मीद बेहद कम नज़र आ रही है। पर्यावरण संकट की वजह से पूरी दुनिया में वायु भी प्रदुषित हो चुकी है नाईट्रोजन और कई दूसरी विषैली गैसों के वायुमंडल में घुल जाने से कई प्रकार की बिमारियां फैल रहीं हैं जिनमें कैंसर जैसी बिमारियां प्रमुख हैं।लाखों लोग हर साल इन बिमारियों की चपेट में आकर मौत के मुंह में चले जाते हैं।लेकिन कभी भी प्रकृति पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ़ एकजुट नहीं हो पाते हैं,आज हालात ये है कि न तो लोग बाढ़ से अपनी रक्षा कर पाते हैं और न ही सूनामी जैसी आपदा को रोक पाते हैं।
        प्रकृति जब नाराज़ होती है तो उसके आगे किसी का बस नहीं चलता वो फ़िर अपने रास्ते में आई हर रुकावट को दूर करती चली जाती है। उसके कोपभाजन का शिकार बनने के बाद जब हम आंखें खोलकर देखते हैं तो खुद को ठगा सा महसूस करते हैं। कैसे एटम बम,कैसे चांद सितारे,कैसे सेटेलाइट सब के सब लाचार तमाशा देखते रह जाते हैं। तरक्की के नाम पर हम न जाने कितने नदी नालों पर अवैध निर्माण कर डालते हैं मगर हम ये भूल जाते हैं कि ये पानी आख़िर आऐगा कहां से,कहां से होगी साफ़ पानी की पैदाईश। देश के अलग-अलग हिस्सों में धरती फटने की लगातार घट रही घटनाएं हमारे इसी प्रकृति दोहन का कुफल हैं। तेज़ गति से बढ़ रही विकास की रफ्तार ने प्रकृति से लेने के लिए तो हजार तर्क बना लिए, लेकिन उसे लौटाने की व्यवस्था न तो सामाजिक स्तर पर, और न ही सरकारी स्तर पर प्रभावी हो पाई।
       अब भी वक्त है कि प्रकृति के इस कोपभाजन से बचा जाए,जल,जंगल और ज़मीन को अमानत समझकर इसकी देखभाल की जाऐ वरना वे दिन भी दूर नहीं जब मनुष्य इन सब महत्वपूर्ण चीज़ों के लिए तरस जाऐगा। इसके लिए ख़ुद लोगों को आगे आना होगा,पर्यावरण को बचाने के लिए अगर पूरजोर लड़ाई भी लड़ी जाऐ तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अपने फ़ायदे के लिए हम आने वाली पीढ़ियों को इन सब चीज़ों से जद्दोदहद करते हुए नहीं देखना चाहते,आने वाला कल अगर सुखमय चाहते हैं तो पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देना ही होगा,तभी प्रकृति के कोपभाजन से बच पाऐंगें अन्यथा नहीं।।.      
        

Monday, May 30, 2011

बडे़ बे-आबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले…..


              
जिस तेजी के साथ जर्नलिज्म में लोग आ रहे हैं उतनी ही तेजी के साथ इसको छोड़ने वालों की भी कमी नहीं है। आज जर्नलिज्म में सिर्फ़ वही टिक सकता है जिसके लिंक अच्छे हों चाहे उसे जर्नलिज्म की समझ हो या न हो। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि मैरे सामने न जाने कितने लोगों ने इस फिल्ड को अलविदा कह दिया और कुछ ऐसे हैं जो जल्द ही इसे अलविदा कहने के मूड में हैं। उनका साफ़तौर पर कहना है कि इस जर्नलिज्म के चक्कर में कहीं वो बर्बाद न हो जाएं,ऐसा इसलिए कि उन्होने जर्नलिज्म का बाहरी रुप देखकर इसे अपनाने का फैसला तो कर लिया मगर इसकी ज़मीनी हकीकत को नहीं पहचाना। जिसने जितनी जल्दी इसे पहचान लिया वो कामयाब हो गया मगर कुछ ऐसे हैं जो हार मानने को तैयार नहीं है। दरअसल ऐसा सिर्फ़ इसलिए कि आज जर्नलिज्म पूरी तरह से बदल चुका है,अगर आपको इस फिल्ड में टिकना है तो आपको अपने लिंक पहले से ही तैयार करके आना होगा। हालांकि इस क्षेत्र में ज्यादा प्रतिस्पर्धा नहीं है लेकिन नौकरी पाने के लिए आपको कई कोरे आश्वासनों से गुज़रना पड़ता है। ऐसे में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो अपने दम पर इस क्षेत्र में मुकाम बना पाते हैं।
       आज जर्नलिज्म बांसुरी की तरह हो गया है,बाहर से सुरीला मगर अंदर से खोखला, इतना खोखला कि आप इसकी सच्चाई जानकर हैरत में पड़ जाऐंगे। इसमें काम करने वाले कई लोग इस पेशे को अपनाकर तनाव की ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। नौजवान लड़के-लड़कियां ग्लैमर के चक्कर में फंसकर लाखों रुपए की फ़ीस चुकाकर जब इस क्षेत्र में काम करने आते हैं तो उनके होश फ़ाख्ता हो जाते हैं। काम की अधिकता,कम पैसा,चापलूसी,रौबदाब,कम छुट्टियां कुछ ऐसी चीज़े हैं जो कई सभ्य लोगों को बड़ी ही नागवार गुज़रती हैं। लेकिन फ़िर भी वो उम्मीद की किरण के फेर में इसमें काम करते रहते हैं।
     इस क्षेत्र में सबसे बड़ी जो दिक्कत है वो है तनाव,तनाव इतना कि आदमी अपनी आधी उम्र ऐसे ही गुज़ार देता है। बड़े पदों पर बैठे लोग कभी भी ये जानने की कोशिश नहीं करते कि उनके कर्मचारी किस माहौल में अपने आपको ढाले हुए हैं। वो ये भी जानने की कोशिश नहीं करते कि कैसे उनके कर्मचारियों का तनाव दूर हो। टीवी पर चीख-चीखकर समाज की तरफ़दारी का भौंडा प्रर्दशन करने वाले एक पल को ये भूल जाते हैं कि खुद उनके अपने तनाव कि ज़िदगी जी रहे हैं। चौबीसों घंटे के न्यूज़ चैनल में काम करने वाले लोगों को देखकर भले ही ये लगता हो कि ये ऐश की ज़िंदगी जी रहे हैं मगर सच्चाई इसके उलट है। वो अंदर ही अंदर कितना घुटते हैं ये शायद वो ही बेहतर जानते हैं।
    ऐसा नहीं है कि इस पेशे में कोई बुराई है,या ये पेशा बुरा है मगर कुछ लोगों की वजह से आज जर्नलिज्म बदनाम हो चुका है। अपने हक की आवाज़ उठाने से ही डरते हैं लोग। ये लोग मंहगाई के इस दौर में चंद रुपयों पर ही काम करने को मजबूर हैं। इसमें गलती आख़िर किसकी है उनकी जो इसमें काम कर रहे हैं या उनकी जो उच्च पदों पर बैठे हैं या फ़िर सरकार की जो ये जानने की कोशिश ही नहीं करती कि लोकतंत्र के चौथे खंभे को थामें लोगों की ज़िदगी आख़िर कैसे चलती है, वो ये भी जानने की कोशिश नहीं करती कि पत्रकार को कितना और कैसा पैसा मिलना चाहिए जिससे कि वो अपनी ज़िंदगी आराम से गुज़ार सके। अब ऐसे में लोग इस पेशे को छोड़ रहे हैं तो इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं है मग़र ऐसा होना नहीं चाहिए नहीं तो आने वाली पीढ़ी का जर्नलिज्म से विश्वास उठ जाएगा और वो दौर भी आ सकता है जब हम ख़बरों को जानने के लिए तरस जाऐंगे और अच्छे लोग मिलना बेहद मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में उन लोगों को जो वास्तव में पत्रकारिता करना चाहते हैं उन्हे आगे लाना ही होगा ताकि नई पीढ़ी उनसे प्रेरणा लेकर इस पेशे को नज़रअंदाज़ न कर सके।
                                          

Saturday, May 28, 2011

फ़ूल....


न जाने कितनों के ख़्वाब टूटे देखे हैं मैने
पर अपना ख़्वाब टूटे जाने से बेहद डरता हूं मैं
तेरी तस्वीर को सीने से लगाए
न जाने क्यों बहुत रोता हूं मैं
वो तेरे घर के रस्ते में कितने फ़ूल बिख़रे थे
उठाना भी जो चाहा तो कुचल डाला उन्हे तुमने

Thursday, May 26, 2011

मजाक....


क्यों रे चंपू कै के रियो थो कल जब मैं गाड़ी में बैठो थो,कुछ न मामू वो तो मैं मजाक कर रयो थो,अबे तेरी ऐसी कम तेसी इतना सिरियस मजाक कर रयो थो और वो भी मुझसे,न मामू बात दरअसल यो है के मैं गुस्से में थो,मेरे गुस्से के आगे न जाने कहां से तुम आ गयो तो,तो इस चक्कर में मैं बक डालो...मगर पैट्रोल को गुस्सो मुझपे क्यों उतार रयो थो हिम्मत है तो सरकार पर उतार...पुलिस पर उतार पता चल जाएगो...सारो गुस्सो काफ़ूर हो जाएगो जब पिछवाड़े पर बेंत से सिकाई होगो...ऐसी बात न है मामू मैं तो समाजसेवक हूं...अबे जा हवा आने दे जब से अन्ना हज़ारे अनशन पर बैठो है सारे आवारा किस्म के लोग यही बको फ़िर रहो है....देख आइंदा से मेरे को कुछ कयो तो तेरी खैर नहीं समझे इतना मारुंगो के तेरा...तेरा क्या मामू एक मुहल्ले में तुम ही तो हो जिससे में अपने दिल की बात शेयर करुं हूं....आपकी कितनी इज्ज़त करुं हूं ये मेरा दिल ही जानो है....अबे चल बकवास करने की डिग्री लियो फिरतो है....काम धाम तो कुछ है नहीं दिन भर आवारागर्दी करो है कुछ काम क्यों न ढूंढ रयो हो....कबतक चलेगो ऐसे....करुगों मामू काम भी करुंगो और नाम भी करुंगो....बस एक बार मेरी शादी हो जाने दो....अबे किसे अपनी बेटी की किस्मत फुड़वानी है....तो तुम फुड़वा दो न मामू....ख़बरदार जो एक लफ़्ज़ भी कहा.....अच्छा मेरे प्यारे मामू एक बात बताओ ये पैट्रोल को दाम एकदम से 5 रुपए बढ़ गयो है आपको टेंशन न होवे है....होवे है बेटा टेंशन भी होवे है पर क्या कर सकें हैं इसमें हमारा क्या बस है ये तो सरकार के हाथ में है....हम तो झेल ही सकते हैं बस...हां मामू वो तो है तुम कित्ता झेलो हो मुझे सब मालूम है....क्या मतलब...मतलब ये के मंहगाई के इस दौर में तीन-तीन बेटियां पालना बड़ी हिम्मत को काम है...मे तो दाद देतो हूं तुम्हारी....चल अच्छा निकल अब मुझे जाने दे....कहां मामू...जहन्नुम में....चलेगो....न मामू बस तुम ही जाओ....मैं शादी करके आउंगो.....

Monday, May 23, 2011

संवेदना…..


पहाड़ काट के सड़क बनाई,पेड़ काटकर छानी
फ़िर भी काम न आया देखो,पानी और जवानी
रोज़-रोज़ के अंधियारे में जीना मरना कैसा
बदले मौसम रुत भी बदले,हवा चले सुहानी
जंगल में ये मंगल कैसा,है कैसा है ये शोर
बात-बात पर मुंह ताके हैं,है किसका ये ज़ोर
ख़ुद ही किस्मत बदलेगी जब,हो मजबूत इरादा
कितने आए कितने गये पर वादा ही रहा वादा
जो भी बातें करनी हों वो करके देखो तुम
इस पहाड़ की रौनक पर क्यों नज़र लगाओ तुम
सारी नदियों पर तुमने कितने बांध बना डाले
पानी की अविरल धारा को कितने पैमाने दे डाले
चंद रुपयों की ख़ातिर तुमने,किया कैसा खिलवाड़
रोजाना ही आते यहां भुकंप और जंजाल
अब भी शायद सूरत बदले जो तुम बदलो आज
फ़िर से शुरु करो पहाड़ों का समुचित विकास    

Monday, May 2, 2011

आंतकवाद का जिम्मेदार कौन?


पाकिस्तान के ऐबटाबाद में एक शानदार हवेली में छुपकर रह रहे अलकायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन को एक हमले में अमेरिकी फौज ने मार गिराया। क़रीब दस सालों से आंतक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन को अमेरिका ने ढुंढने में ही सालों लगा दिए,अफ़गानिस्तान की पहाड़ियों से लेकर पाकिस्तान के हर उस कबाईली इलाके में ओसामा को खोजा गया जहां उसके मिलने की गुंजाइश थी,पर अफ़सोस कि वो अमेरिका को हर बार चकमा देता रहा। अगर कहा जाए तो अकेले ओसामा और उसके साथियों ने अमेरिका की नाक में दम कर दिया,और उसको हर बार की तरह ठेंगा दिखाते रहे।जार्ज बुश से लेकर बराक ओबामा तक से अमेरिका और उसके हमसाया मुल्क सवाल दर सवाल पूछते रहे कि आख़िर ओसामा को ज़मीन खा गई या आसमां निगल गया। हर बार की तरह अमेरिका अपने लोगों को भरोसा देता रहा कि जल्द ही ओसामा का काम तमाम कर दिया जाएगा। ऐसा नहीं था कि अमेरिका को शक नहीं था कि ओसामा पाकिस्तान के इर्द-गिर्द हो छुपा हो सकता है,लेकिन पाकिस्तान पर उसकी मेहरबानी न जाने क्यों बनी रही। पाकिस्तान भी अमेरिका की चापलूसी करके उसे हर बार भरोसा दिलाता रहा कि ओसामा उसके मुल्क में नहीं है,और अगर है तो फ़िर उसे मार दिया जाएगा।
     ओसामा के पाकिस्तान में मारे जाने से एक बात तो साफ़ तौर पर जाहिर हो गई कि पाकिस्तान दहशतगर्दी को बढ़ावा देने में सबसे आगे है। उसे खुद नहीं मालुम कि उसके यहां कितने दहशतगर्दाना संगठन काम कर रहे हैं। ओसामा के मारे जाने के बाद पाकिस्तान से शायद हर मुल्क सवाल करेगा,इसमें सबसे आगे अमेरिका ही होगा। हालांकि अमेरिका खुद हैरत में है कि पाकिस्कान में ओसामा को होने के बावजूद भी पाकिस्तान लगातार उसे बहलाता रहा। आशंका तो ये भी की जा रही है कि पाकिस्तानी खुफ़िया ऐजेंसी आईएसआई को सब मालुम था,उसे ये भी मालुम था कि ओसामा कहां और कब से यहां पनाह लिए हुए है। अगर ऐसा न होता तो शायद अमेरिका की नज़रों से ओसामा का अबतक बचना नामुमकिन था,क्योंकि 9/11के हमले के बाद अमेरिका ओसामा को ज़ख्मी जानवर की तरह ढुंढ रहा था। और इस अभियान को लेकर उसने न जाने अपने कितने सैनिक और अरबों डालर पानी की तरह बहा दिए।अमेरिका ओसामा को अपना नंबर वन का दुश्मन मानता था,साथ ही अमेरिका अपनी जनता को बार-बार ये भरोसा भी दिलाता रहता था कि ओसामा को वो जल्द ही ढूंढ निकालेगा और उसे उसके किए की सजा देगा।
     अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने व्हाइट हाउस में ओसामा के मारे जाने के बाद अपनी पीठ थपथपाते हुए ऐलान किया कि दहशत के बादशाह का ख़ात्मा हो चुका है,और जो अमेरिका कहता है वो कर दिखाता है। लेकिन इस बीच बराक ओबामा भूल गए कि ओसामा को इतना बड़ा दहशतगर्द बनाने में जिसका सबसे बड़ा हाथ है वो खुद अमेरिका है। सऊदी अरब का एक कारोबारी कैसे अमेरिका की शह पर दुनिया का सबसे मोस्टवांटेड आंतकी बन गया खुद अमेरिका भी हैरान था। अमेरिका को शायद गुमान भी नहीं होगा कि उसकी आस्तिन का सांप जिसे ख़ुद उसने दूध पिलाकर पाला पोसा वो उसे ही डस लेगा। दरअसल अमेरिका अपने फ़ायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकता है ये शायद कम लोग ही जानते हैं। आंतकवाद को लेकर हो-हल्ला मचाने में उसका कोई सानी नहीं,लेकिन दूसरे मुल्कों में जब आंतकवादी हमला होता है तो अमेरिका सिर्फ़ झूठी तसल्ली देकर पल्ला झाड़ लेता है।
      हिंदुस्तान की आर्थिक राजधानी मुंबई में हुए 26/11 के हमले के बाद अमेरिका ने भारत को झूठी तसल्ली के अलावा कुछ नहीं दिया,यहां तक कि खुद बराक ओबामा हिंदुस्तान की यात्रा पर भी आऐ और मुंबई भी गए,पर अफ़सोस उन्होने एक बार भी खुलकर पाकिस्तान को नहीं चेताया। सारी दुनिया जानती है कि हिंदुस्तान आंतकवाद से पीछा नहीं छुड़ा पा रहा है। ये नाग रह-रहकर उसे डसता रहता है। पर कभी भी अमेरिका ने खुलकर इसकी निंदा नहीं की,उसने कभी भी पाकिस्तान को चेतावनी नहीं दी कि भारत में दहशतगर्दी को बढ़ावा न दे और आंतकवादियों की घुसपैठ न कराऐ। अब जब ओसामा पाकिस्तान में ही मारा गया है तो नि:संदेह ये बात कही जा सकती है कि आंतकवादियों को पनाह देने में पाकिस्तान का कोई सानी नहीं है। खुद पाकिस्तान भी हैरान है कि क्या से क्या हो गया। तोतली जबान में ही सही वो अमेरिका को सफ़ाई दे रहा है कि उसे नहीं मालुम था कि ओसामा उसके यहां छुपा बैठा है। लेकिन इससे उसका झूठ छुपने वाला नहीं,अमेरिका सबकुछ जानते हुए भी अंजान नहीं था। वो जानता था कि ओसामा जैसे न जाने कितने आंतकी पाकिस्तान में पनाह लिए हुए हैं इसलिए उसने पाकिस्तान पर भरोसा न करके खुद ही इस आपरेशन को अंजाम दिया। अब खिसियानी बिल्ली की तरह पाकिस्तान सफ़ाई दे रहा है कि अमेरिका ने बिना इजाज़त के इस आपरेशन को अंजाम दिया,और अब वो इसकी शिकायत यूएनओ में दर्ज कराएगा।
      ओसामा बिन लादेन को भले ही मार गिराया गया हो लेकिन एक सवाल हर किसी के जेहन में कौंध रहा है कि ठीक अमेरिका में होने वाले चुनाव से ऐन पहले इस आपरेशन को अंजाम दिया गया ऐसा क्यों और किस वजह से किया गया,क्या इसमें कोई अमेरिकी पालिसी है या फ़िर ये सामान्य प्रकिया। लेकिन जहां तक बात ओबामा की है तो वो अपनी लोकप्रियता में आई कमी से हैरान हैं,अमेरिका का राष्ट्रपति बनते ही उन्होने जो वादे किए उसमें वो कहीं भी खरे नहीं उतर सके,पिछले साल अमेरिका में छायी आर्थिक मंदी से जब अमेरिका में लाखों लेग बेरोजगार हो गए और साथ लोगों के लाखों डालर डूब गए तब बराक ओबामा कुछ दिनों के लिए सबकुछ भूल गए थे। वो ये भी भूल गए थे कि अमेरिका की फौज अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान में ओसामा को ढूंढने में लगी है। लोगों ने सवाल किया कि अरबों डालर युद्ध के नाम पर बहाना कहां कि समझदारी है।
     अगले साल अमेरिका में राष्ठ्रपति के चुनाव होने वाले है,ओबामा ऐलान कर चुके हैं कि वो अगला चुनाव भी लड़ेगें,पर किस मुद्दे पर खुद उन्हे भी नहीं मालुम। अब कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे वो फ़िर से अपना झंडा लहरा सकें,उन्होने रणनीति बनानी शुरु कर दी कि कैसे वापस रिंग में लौटा जाए। अब उनकी डूबती नैय्या कोई पार लगा सकता था तो वो सिर्फ़ ओसामा बिन लादेन ही था,शक था लेकिन पुख़्ता सबूत नहीं। अमेरिकी खुफ़िया ऐजेंसी सीआईए को जैसे ही मालुम हुआ कि ओसामा के पाकिस्तान में ही छुपे होने की उम्मीद है,ओबामा की बांछें खिल गईं। ओबामा ने मौके को हाथ से न जाने दिया और कैसे भी हो ओसामा को मार गिराने का हुक्म दिया साथ ही ये हिदायत भी दी कि पाकिस्तान को इसकी कानों-कान भी ख़बर नहीं होनी चाहिए। किस्मत ने उनका साथ दिया और अमेरिकी फौज ने बिना पाकिस्तान की मदद के ओसामा को ढेर कर दिया और उसे दफ़नाने में इतनी जल्दबाजी दिखाई जितनी कि इराक में सद्दाम हुसैन को फ़ासी पर लटकाने में दिखाई थी।
     अब भले ही पाकिस्तान अमेरिका को लाख सफ़ाई दे कि उसे ओसामा के छुपे होने की कोई ख़बर नही थी,भले ही अमेरिका उसे कहे कुछ न लेकिन अब शायद पाकिस्तान पर भरोसा करना जायज़ नहीं है। लगे हाथ भारत को भी अपना पत्ता खोल देना चाहिए उसे जोर-शोर से ये मांग दोहरानी होगी कि मुंबई हमले को मुल्जिम उसके यहां पनाह लिए हुए हैं और सरेआम घुम रहे हैं। पाकिस्तान पर दबाव बनाने का ये अच्छा मौका है भारत को इसे किसी भी सूरत में गंवाना नहीं चाहिए.अब जब पूरी दुनिया को सबूत मिल गया है कि पाकिस्तान में ओसामा ही नहीं न जाने कितने आंतकी पनाह लिए हुए हैं और फल-फूल रहे हैं।        

Friday, April 29, 2011

दरमियां.....


कब तक क़याम रहेगा जनाब का देहली में....यही दो रोज़....गुजिश्ता काफ़ी रोज़ से सोच रहा था कि देहली में आपसे मुख़ातिब होउं लेकिन मसरुफ़ियात की वजह से आपसे न तो मुलाकात हुई और न ही कोई गुफ़्तगु.....अब सोच रहा हूं के देहली में क़याम के दौरान आपसे मिलकर पुरानी यादों को एक बार फ़िर से ताज़ा कर लिया जाऐ.....जी बेहतर....कब तशरीफ़ ला रहे हैं जनाब देहली में.....आइंदा हफ़्ते....जी बेहतर... आपका यहां कोई बड़ी ही बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है.....कौन है...ज़रा हमें भी तो मालुम चले....बस इसे सीक्रेट ही रहने दें...जब आप ख़ुद मुख़ातिब हों तो कहिए...फ़िर भी ज़रा बताओ तो सही..... कम-अज़-कम इस बहाने आप हमारे ग़रीबख़ाने पर कुछ दिन तो क़याम कर पाऐंगें..... अरे कालेज के दिनों में एक तुम ही तो थे जिसने मेरी ज़िंदगी को बदलने में अहम रोल अदा किया.....तो ठीक है देहली रवाना होने से क़ब्ल में आपको इत्तला कर दूंगा....बेहतर-बेहतर....अल्लाह हाफ़िज़....
     तनवीर से ऐहसान की बड़ी दोस्ती थी....ये दोस्ती उस वक्त परवान चढ़ी जब तनवीर और ऐहसान देहली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कैंटिन में मिले...दोनों की मुलाकात मरियम ने करवाई थी....तनवीर मास काम कर रहे था और ऐहसान फ़ाइन आर्टस का कोर्स...तनवीर के अब्बा का देहली में एक्सपोर्ट का काम था....किसी हीरो से कम नहीं था तनवीर.. कालेज के दिनों में मरियम और तनवीर एक दूसरे के काफ़ी क़रीब थे....लेकिन फाइन आर्ट में होने की वजह से ऐहसान और मरियम का आपस में काफ़ी मिलना जुलना होता था। वक्त गुज़र रहा था और तनवीर के अब्बा उसका शादी को लेकर फ़िक्रमंद होने लगे थे...चूंकि तनवीर की अम्मी की तबियत अक्सर नासाज़ रहती थी....मरियम से जब तनवीर ने शादी के बारे में बताया तो उसने इंकार कर दिया वो अभी शादी नहीं करना चाहती थी....लेकिन तनवीर को शादी की जल्दी थी....ख़ैर बात आई गई हो गई....तनवीर को लगा कि कहीं मरियम ऐहसान की वजह से तो शादी से इंकार नहीं कर रही.....तनवीर ऐहसान से कटने लगा....मरियम और ऐहसान को साथ-साथ देखकर वो सुलग जाता..उसे लगता कि राह का रोड़ा ऐहसान ही है....और एक दिन तनवीर ने सबके सामने ऐहसान को ख़री-खरी सुना दी.....ऐहसान हैरानगी से तनवीर को देखता रह गया...उसे समझ ही नहीं आया कि आख़िर माज़रा क्या है....वो कभी मरियम की तरफ़ देखता तो कभी तनवीर की तरफ़....मरियम भी वहां से दबे पांव निकल गई....ऐहसान ने ख़ामोश रहकर ही तनवीर को जवाब दे दिया..... खैर तनवीर की शादी रिहाना से हो गई....शादी में ऐहसान का न होना....इस बात का सबूत था तनवीर और ऐहसान के रिश्ते कितने तल्ख़ हो चुके थे....हालांकि ऐहसान खुद नहीं समझ पा रहा था कि तनवीर को आख़िर हो क्या गया है...उधर ऐहसान कोर्स पूरा कर दुबई निकल गया....वक्त बीतता गया लेकिन कभी हिंदुस्तान न आना हुआ.....अरे मरियम कैसी हो...जी रही हुं आप बताऐं....मुझे मुआफ़ कर दो मरियम उस दिन मैं बहक गया था....मुझे लगा शायद तुम्हारे और ऐहसान के दरमियान कुछ....कितने ग़लत थे तुम.....अरे मुझे शादी नहीं करनी थी....तो तुमने ऐहसान को क्यों बदनाम किया....सिर्फ़ इसलिए कि वो मेरे साथ कोर्स करता था....मुझे एक बार प़िर मुआफ़ कर दो मरियम मैं..... उससे रहा न गया दोस्ती की ख़ातिर उसने ऐहसान के वालिद से उसका फोन नंबर लिया...और फ़िर दो दोस्त आपस में ऐसे बात करने लगे जैसे उनके दरमियान कुछ हुआ ही न हो....तुम बिल्कुल नहीं बदले ऐहसान और तुम भी तो नहीं बदले तनवीर....यार मुझे मुआफ़ कर दो....मैने तुम्हारा दिल दुखाया है.....अच्छा ये बताओ शादी की अभी तक या नहीं....अभी तक तो नहीं ....फ़िर ठीक है.....क्यों क्या हुआ...अरे यार मरियम....मरियम वो मरियम...हां यार ...वो तेरे इंतज़ार मैं कुंवारी बैठी है अबी तक...अबे कैसी बातें करता है.....जोर से हंसकर गाड़ी मैं बैठ गऐ दोनों ....और बता सिर्फ़ दो दिन के लिए ही आया है यार....ऐसे कैसे चलेगा..तेरी भाभी और बच्चे कितनी बेसब्री से तेरा इंतज़ार कर रहे हैं....शायद तुझे नहीं मालुम....बातों बातों में कब घर आ गया मालुम ही नहीं चला....ये रेहाना है...हमारी शरीके-हयात और ये तुफैल और ये नाजिश....बेटे अंकल को सलाम करो....कैसी हैं भाभी आप....जी अच्छी हूं....अच्छा फ्रेश हो जाओ...फ़िर नाश्ता करते हैं....ओके.....उसके बाद तुम्हे किसी से मिलवाना भी है...किससे....मरियम से अमां रहने दो मियां....एक पेंटर की ज़िंदगी में कोई रंग नहीं होता....क्या फ़ायदा...नहीं यार ऐसी बात नहीं फ़िर भी तेरा क्या जाता है.....ठीक है.....मरियम कोई मिलने आया है आपसे कौन....जाओ....गार्डन में हैं खुद ही मिल लो....मैं यहीं रुकता हूं....अरे.....ऐहसान तुम....इतने दिनों बाद....अचानक.....कैसी हैं आप....बस जी रही हूं.....आप कैसे हैं....देख लो....जबसे आप जामिया से गये...लगता मानो सारी रौनक ही चली गई....ऐसा नहीं है...ये सब आपको लगता है.....क्या कर रहीं हैं आजकल.....जामिया मे ही पढ़ा रही हूं.....बहुत ख़ुब....कैसा है दुबई......बहुत उम्दा....कभी याद भी नहीं किया आपने....जी बस मसरुफ़ियात....मालुम हुआ बहुत मसरुफ़ रहते हैं आप.....जी नहीं ऐसी बात नहीं....ये ख़ास आपके लिए.....बहुत ख़ुबसूरत है....इसे देखकर लगता है इसे तुमने ही बनाया है.....तुम्हे कैसे मालुम....देखो ये....जब हम साथ में पेंटिंग्स बनाया करते थे तो तुम इस जगह....यो निशानात छोड़ दिया करते थे.....शादी कर ली....नहीं अभी तक नहीं...क्यों कोई मिली नहीं दुबई में नहीं बहुत मिलीं लेकिन तुम जैसी नहीं.....मजाक अच्छी कर लेते हो.....ये सच है.....मुस्कुरा भर दी मरियम....मरियम पैसा शोहरत बहुत कमा ली लेकिन सुकूं नहीं कमा पाया....तुम शायद नहीं जानती कि तनवीर की एक काल से मैं कितना खुश हुआ...भागा चला आया इससे मिलने....लेकिन तनवीर ने तो.....कोई बात नहीं मरियम गुस्से में हमें इसने जो कहा था.....वो सब मैं भुला चुका हूं आख़िर अच्छे दोस्त क़िस्मत से जो मिलते हैं.....ख़ैर छोड़ो....ये बताओ तुमने शादी क्यों नहीं की क्या तुम्हे भी कोई नहीं मिला...मैं तलाकशुदा हूं ऐहसान...ठंडी सांस भरते हुऐ...मरियम ने कहा....बिजली सी दौड़ गई......क्या हुआ....ऐहसान....मैं कुछ समझा नहीं तुम्हारे जैसी लड़की को कोई तलाक क्यों देगा भला.....मैं ये जानकर हैरां हूं कि....तुम जैसों को कितनी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है.....मैं माज़ी को भूल चुकी हूं ऐहसान....मेरे ज़िंदगी अब सिर्फ़ टाइमपास है और कुछ नहीं....मेरी ज़िंदगी बेरंग हो चुकी है.....मैं नहीं चाहती की किसी और से शादी करके मैं अपना माज़ी याद करुं....मुझसे भी नहीं....नहीं तुमसे भी नहीं.....मैं अब शादी नहीं करना चाहती....हम अच्छे दोस्त हैं...और मैं चाहती हूं कि हमारी ये दोस्ता ताक़यामत क़ायम रहे.....ठीक है.....हल्की मुस्कुराहट लेकर अलविदा कह गया ऐहसान....नहीं यार मुझे शाम की फ़्लाइट से ही निकलना है....कुछ ज़रुरी काम आन पड़ा है इंशाल्लाह फ़िर आउंगा....मुझे जल्दी से एयरपोर्ट छोड़ दो.....