Thursday, April 14, 2011

इंसानी फ़ितरत और दरकते रिश्ते…..


दो बहनें थी अनुराधा और सोनाली दोनों पढ़ी लिखी फैमिली से ताल्लुक रखती थीं.....पिता फौज में कर्नल थे....देश की राजधानी दिल्ली में रहता था परिवार....अचानक इस परिवार पर किसी की नज़र लग गई....पहले पिता फ़िर मां की मौत हो गई....दोनों बहने इस सदमें को बर्दाश्त कर सकने में नाकाम हो गईं....लेकिन उम्मीद अभी भी बाकी थी....वो उम्मीद थी उनका छोटा,लाड़ला और प्यारा भाई...दोनों ने चाहा कि शायद अपने इस भाई के बूते ही वो अपनी सारी ज़िंदगी गुजार देंगी....उसे पढ़ा-लिखा कर इस लायक बनाया कि वो अपनी ज़िंदगी बेहतर तरीके से गुज़ार सके.... और साथ ही कुर्बानी दी कि अगर उन्होने शादी की तो शायद उनका भाई अकेला पड़ जाएगा.....और कैसे अपनी ज़िंदगी गुज़ारेगा....और मां-बाप के बाद आख़िर वही तो उसकी मां-बाप है....अच्छे ख़ानदान में उसकी शादी कर दी....लेकिन कुछ दिन के बाद दोनों बहनों के सपने टूटने लगे....रिश्ते दरकने लगे....भाई को अपनी ज़िंदगी अपनी बीवी की ज़िंदगी ज्यादा इम्पोर्टेंट दिखाई दी बनिस्पत अपनी बहनों की ज़िंदगी के....उन बहनों की जिन्होने अपनी ज़िदगी अपने भाई के नाम कर दी थी....अपनी अच्छी नौकरियों को ठुकरा दिया था....सिर्फ़ इसलिए कि उनका भाई उनका सहारा बनेगा....लेकिन अफ़सोस....
    ये कोई कहानी नहीं बल्कि हक़ीक़त है....कड़वी सच्चाई है...हमारे ढोंगी समाज की....वो समाज जो आधुनिकता की चकाचौंध में ये भूल गया है कि इंसान का इंसान से हो भाईचारा....अनुराधा और सोनाली 6 माह तक अपने आप को कमरे में कैद करके बैठ गईं....और पड़ोसियों तक को इसकी भनक न लगी.....आख़िर किस दौर में जी रहें हैं हम....क्यों हमारी संवेदनशीलता मर गई है...क्यों हमें किसी का दुख दिखाई नहीं देता....एक इंसान सड़क पर दम तोड़ देता है और हम उसे अपनी आंखों के सामने मरते हुए देखने के बाद ऐसे चले जाते हैं जैसे सिनेमा हाल से कोई फ़िल्म देखकर बाहर निकले हों.....
     बड़े शहरों में फ्लेटी संस्कृति में जीने के आदी हो चुके समाज के ज्यादातर लोगों को किसी से कोई मतलब नहीं....उनका भगवान और भाई सिर्फ़ पैसा और पैसा है....इस पैसे और भागदौड़ वाली ज़िंदगी में न तो उनके पास अपने लिए वक्त है और न ही अपने मां-बाप और रिश्तेदारों के लिए यहां तक की पड़ोसियों तक के लिए भी नहीं....लेकिन शायद वो ये भूल रहे हैं कि वक्त कितना बेरहम है.....वो जितना आगे ले जाता है वहीं वापस लाकर पटक भी देता है....मानवता शायद बड़े और मैट्रो शहरों में मर चुकी है....लोग चाहतें हैं कि कोई उनसे मतलब न रखे...आज एक पड़ोसी अपने दूसरे पड़ोसी का नाम तक नहीं जानता...अगर कोई हादसा होता है तो पड़ोसी सच बताने से इंकार कर देता है इसका क्या मतलब है....इसका मतलब साफ़ है,जब उसने कोई मतलब नहीं रखा तो हम क्यों रखें....अजी हम आपके हैं कौन....
    अनुराधा की मौत ने झकझोर दिया है हम जैसे लोगों को....आख़िर कहां जा रहे हैं हम...क्या सिर्फ़ अपने लिए जीना ही जीना है....असली जीना तो दूसरे के लिए है...एक इंसान दूसरे के लिए अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा दे...इससे बड़ा बलिदान और क्या हो सकता है....यही किया है अनुराधा और सोनाली ने....लगा दी अपनी ज़िंदगी अपने भाई के लिए दांव पर....क्या वे शादी करके अपनी ज़िदगी नहीं संवार सकती थीं....क्या उनमें जीने की तमन्ना नहीं थी....क्या वे नहीं जानती थीं कि अगर उनका भाई उनका सहारा बन गया तो वे अपनी ज़िंदगी उसी के सहारे काट देंगी....पर अफ़सोस ऐसा हो न सका....दोनों बहने भाई के उन्हे अकेला छोड़कर चले जाने के ग़म में सदमें में चली गईं.....और क़ैद कर लिया अपने आपको..... इस झूठे समाज से....यहां तक कि उस सूरज से भी जो दुनिया में रोशनी बिखेरता है.....नहीं चाहिए कोई रोशनी....जब रिश्ते ही दरक चुके हैं.....
      अब लाख चीख लें चिल्ला लें...कुछ नहीं हो सकता...क्या अनुराधा वापस लौटकर आ सकती है....नहीं न....तो फ़िर किस बात का हो हल्ला....कमेटी बिठाओ....जांच करो....सब सियासत...झूठी बातें...कोरी बकवास...होना तो ये चाहिए कि ध्यान रखें अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों का...ख़्याल रखा जाए आसपास के लोगों का...लोगों का इंसानियत के नाम पर आपसी मेलजोल बरकरार हो....फ़िर शायद कोई अनुराधा और सोनाली इस तरीक़े से अपने आपको घर में कै़द न कर सके...कोशिश तो की ही जानी चाहिए....उन्हे भी जो सियासतदां है और उन्हे भी जो मैट्रो संस्कृति का हिस्सा हैं...औऱ स्टेट सिंबल की ख़ातिर ही सही..ढोंगी ज़िंदगी जीने के आदी हो चुके हैं.....

No comments: